गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 20.स्वभाव और स्वधर्म[1]
तब, इस त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति से त्रिगुणातीत दिव्य परा प्रकृति की ओर जीव के मोक्षजनक विकास के द्वारा ही हम, सर्वोत्तम रूप से, आध्यात्मिक मुक्ति और पूर्णता लाभ कर सकते हैं। और जब उच्चतम सत्त्वगुण विकसित होते-होते अपनी प्रधानता के उस शिखर पर पहुँच जाये जहाँ यह (सत्त्व) स्वयं भी अतिक्रांत हो जाता है अपनी सीमाओं के परे आरोहण कर चिन्मय आत्मा की उस परम स्वतंत्रता, परिपूर्ण ज्योति तथा प्रशांत शक्ति में जा पहुँचता है जिसमें परस्पर-विरोधी गुणों के द्वारा किसी भी प्रकार का निर्धारण नहीं होता, तभी यह विकास भी सर्वश्रेष्ठ रूप में संपन्न हो सकता है। बंधनमुक्त बुद्धि में हम अपनी जिन आंतरिक संभावनाओं की सृष्टि कर सकते हैं उनकी उच्चतम मानसिक परिकल्पना के अनुसार हमारे वर्तमान स्वरूप का नव-निर्माण करने वाला एक सर्वोच्च सात्त्विक श्रद्धा-विश्वास एवं उद्देश्य ही उक्त त्रिगुण अतिक्रमण के द्वारा परिवर्तित होकर हमारी अपनी वास्तविक सत्ता के अंतर्दर्शन में, आध्यात्मिक आत्मा-ज्ञान में परिणत हो जाता है। धर्म का उच्चतम आदर्श या प्रतिमान, अपनी प्राकृत सत्ता के यथार्थ विधान का अनुसरण एक मुक्त सुनिश्चित स्वयं-स्थित पूर्णता में रूपांतरित हो जाता है जिसमें आदर्शों के सभी सहारों को अतिक्रम कर लिया जाता है और अमर आत्मा एवं अध्यात्म-संत्ता का स्वतःस्फूर्त धर्म हमारी सत्ता के करणों और के निम्नतर नियम का पदच्युत कर देता है। सात्त्विक मन और संकल्प एक और अभिन्न सत्ता के उस आध्यात्मिक ज्ञान एवं कर्मशक्ति में परिणत हो जाते हैं जिसमें संपूर्ण प्रकृति अपना छदारूप उतार फेंकती है और अपने अंतरस्थ परमेश्वर की स्वतंत्र आत्म-अभिव्यक्ति बन जाती है। सात्त्विक कर्ता अपने उद्गम के साथ संयुक्त, पुरुषोत्तम के साथ एकीभूत जीव बन जाता है; वह तब और कर्म का वैयक्तिक कर्ता नहीं रहता वरन् विश्वातीत एवं विश्वगत परमात्मा के कर्मों का आध्यात्मिक यंत्र बन जाता है। उसकी प्रकृतिगत सत्ता रूपांतरित और ज्ञानदीप्त होकर विश्वगत एंव निवैंयक्तिक कर्म का यंत्र दिव्य धनुर्धर का धनुष बनी रहती है। जो पहले सात्त्विक कर्म था वह अब पूर्णताप्राप्त प्रकृति की एक मुक्त क्रिया बन जाती है जिसमें अब पहले की तरह कोई व्यक्तिगत अपूर्णता नहीं रहती, इस या उस गुण के प्रति कोई आसक्ति, पाप और पुण्य, स्व और पर का कोई बंधन, या परम आध्यात्मिक आत्म-निर्धारण को छोड़कर कोई निर्धारण नहीं रहता। ईश्वरान्वेषी एवं आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा उन अनन्य दिव्य कर्मी भगवान् की ओर ऊंचे उठा ले जाये गये कर्मों की चरम परिणति यही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18.46-48
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