गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 21.परम रहस्य की ओर[1]
इस सीमाबंधन का भी कुछ उपयोग है और निश्चय ही कुछ समय के लिये यह अनिवार्य भी है। मनुष्य अपने मन और संकल्प के द्वारा परिसीमित है, इसलिये उसे अपने विचार और कर्म का निर्वाचन करने के लिये एक नियम और विधान की, एक बंधी-बंधाई पद्धति और सुनिश्चित अभ्यासक्रम की आवश्यकता होती है; वह चाहता है एक ही अचूक और कटा-छंटा मार्ग जो दोनों ओर से बाड़ से घिरा हुआ एवं सुनिर्दिष्ट हो और जिस पर पैर रखना सुरक्षित हो, वह चाहता है सीमित व्योम, परिरक्षित पड़ाव। केवल शक्तिशाली और विरले व्यक्ति ही स्वतंत्रता के एक स्तर के द्वारा उसके दूसरे स्तर की ओर बढ़ सकते हैं। और फिर भी जिन रूपों और प्रणालियों में मन संतुष्ट रहता है और अपना सीमित सुख लाभ करता है उनसे अंततः बाहर निकलने का कोई मार्ग मुक्त जीव के लिये होना ही चाहिये। अपने आरोहण की सीढ़ी को पार कर जाना, उसके ऊंचे-से-ऊंचे डण्डे पर भी रूक न जाना बल्कि मुक्त और व्यापक रूप से आत्मा की विशालता में विचरण करना ही वह मुक्त है जो हमारी पूर्णता के लिये परमावश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18.49-56
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