गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 24.गीता का संदेश
अतएव कर्म का परमोच्च निर्दोष एवं व्यापकतम विधान है किसी बाह्य आदर्श एवं धर्म का अनुसरण न करके अपनी उच्चतम तथा अंतरतम सत्ता का सत्य ढूढ़ निकालना और उसमें निवास करना। जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक समस्त जीवन एवं कर्म एक अपूर्णता एक कठिनाई संघर्ष एवं वास्तविक स्वरूप के अनुसार जीवन बिताने से ही उस समस्या को अतिंम रूप से हल किया जा सकता है, उस कठिनाई एवं संघर्ष को पार किया जा सकता है और तुम्हारे कर्म उपलब्ध आत्मा एवं अध्यात्मसत्ता की सुरक्षित स्थिति में पूर्णता को प्राप्त होकर वास्तविक आत्मा को ईश्वर समझो और उसे अन्य सबकी आत्मा के साथ एक जानीः अपनी अंतरात्मा को परमेश्वर का एक अंश जानो। और फिर जो जानते हो उसी ज्ञान में निवास करो; साथ योगयुक्त होओ और भगवत्तुल्य बनो। सर्वप्रथम, अपने सभी कर्म यज्ञ-रूप में उत्सर्ग कर दो, उनके प्रति जो तुम्हारे अंदर और इस जगत के अंदर परमोच्च और एकमेव सत्ता के रूप में विराजमान है; अंत में, जो कुछ तुम हो और जो कुछ तुम करते हो वह सब उन्हीं के हाथों में सौंप दो जिससे कि वे परम और विश्वगत भगवान इस जगत् में तुम्हारे द्वारा अपने संकल्प और अपने कर्मों को संपन्न करें। तुम्हारे सामने मैं जो समाधान रखता हूँ वह यही है और अंत में तुम देखोगे कि इसके सिवा और कोई समाधान है ही नहीं।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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