गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2. भक्ति -ज्ञान -समन्वय
उसकी कोई इच्छाएं नहीं हैं जिनके पीछे वह भटकता फिरे, क्योंकि वह उसे पा चुका है जो सबसे ऊंची चीज है, जो सब कुछ है, और सदा उस सर्व- शक्ति के समीप है जो संपूर्णता को देने वाली है। उसमें कोई शंका या चकराने वाली खोज नहीं बची, क्योंकि उसपर सारा ज्ञान उस ज्योति से प्रवाहित हुआ करता है जिसमें वह निवास करता है। वह पूरी तरह भगवान् से प्रेम करता और भगवान का प्यारा होता है; क्योंकि जैसे उसे भगवान् से आनंद मिलता है वैसे ही भगवान् भी उससे आनंद लाभ करते हैं। यही वह भगवतप्रेमी हैं जो ज्ञान से युक्त है, ज्ञानी भक्त हैं और, यह ‘‘ज्ञानी-भक्त” गीता में भगवान् कहते हैं कि, ‘‘मेरी आत्मा है” अन्य भक्त भगवान् के केवल प्रकृति गत भाव और स्वरूप ग्रहण करते हैं जिनके साथ वह एक हो जाता है। उसी का पराप्रकृति में दिव्य जन्म होता है- स्वरूप से समग्र, संकल्प में पूर्ण, प्रेम में अनन्य, ज्ञान में सिद्ध। उसी में जीव का वैश्व जीवन चरितार्थ होता है, कारण वह अपने-आपको ही पार कर जाता और इस तरह अपने ही संपूर्ण और परम सत्य-स्वरूप को प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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