गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
8. भगवान् और संभूति–शक्ति
सुतरां, उस उपलब्धि तक पहुँचने का मार्ग अर्जुन को अब बता दिया गया है। और,जहाँ तक महान् स्वतःप्रत्यक्ष दिव्य तत्त्वों का संबंध है, वे व्यक्ति के मन को चक्कर में नहीं डालते। वह परम देवाधिदेव-सबंधी विचार, अक्षर आत्मा के अनुभव, अंतर्यामी ईश्वर के प्रत्यक्ष बोध तथा चेतन विश्व-पुरुष के संस्पर्श की ओर खुल सकता है। देवाधिदेव-विषयक विचार से एक बार मन के आलोकित होते ही, मनुष्य शीघ्रता के साथ मार्ग का अनुसरण कर सकता है सामान्य मानसिक बोधों को अतिक्रांत करने के लिये चाहे कोई भी प्रारंभिक कठिन प्रयत्न क्यों न करना पड़े, फिर भी अंत में वह इन मूल सत्यों का, जो हमारी सत्ता तथा समस्त सत्ता के पीछे अवस्थित हैं, स्वानुभाव प्राप्त कर सकता है। वह इसे शीघ्रता के साथ प्राप्त कर सकता है, क्योंकि ये, एक बार विचार में आ जाने पर, प्रत्यक्ष ही दिव्य सत्य होते हैं; हमारे मानसिक संस्कारों में ऐसी कोइ चीज नहीं जो ईश्वर को इन उच्च रूपों में स्वीकार करने से हमें रोकती हो। पर कठिनाई तो जीवन के प्रतीयमतान सत्यों में उसे देखने, प्रकृति के इस तथ्य में तथा जगत्-अभिव्यक्ति के इस प्रच्छन्नकारी दृश्य प्रपंच में उसे ढूंढ़ निकालने में पैदा होती है; क्योंकि यहाँ सब कुछ इस एकीकारक विचार की उच्चता के विपरीत है। भगवान् को मनुष्य, जीव-जंतु तथा जड़ पदार्थ के रूप में, उच्च नीच,सौम्य रौद्र तथा शुभ अशुभ में देखने के लिये हम कैसे सहमत हो सकते हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.14
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