गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
8.भगवान् और संभूति–शक्ति
वह पुकारकर कहता है कि इस योग के विषय में जिसके द्वारा आप सबके साथ एक हैं और सबके अंदर अवस्थित ‘एक’ हैं और सब आपकी सत्ता के भूतभाव हैं, सब आपकी प्रकृति की व्यापक या प्रमुख या प्रच्छन्न् शक्तियां हैं, आप मुझे पूरे व्योरे और विस्तार के साथ बताइये और सदा अधिकाधिक बताइये; यह मेरे लिये अमृत-रस है और जितना ही अधिक मैं इसके बारे में सुनता हूं, मेरी तृप्ति नहीं होती यहाँ हम गीता में एक ऐसी चीज का संकेत पाते हैं जिसे स्वयं गीता भी स्पष्ट रूप में प्रकट नहीं करती, परंतु जो उपनिषदों में बार-बार आती है और जिसे आगे चलकर वैष्णव तथा शाक्त धर्मों ने, दिव्य दर्शन की महत्तर तीव्रता में विकसित किया था, वह है जगत् में रहने वाले भगवान् में मनुष्य को आनंद प्राप्त होने की संभावना, सार्वभौम आनंद, जगज्ज्जननी की क्रीड़ा एवं ईश्वर की लीला का माधुर्य और सौन्दर्य। भगवान् गुरु शिष्य की प्रार्थना को स्वीकार कर लेते हैं, किंतु शुरू में ही स्मरण करा देते हैं। कि पूर्ण उत्तर देना संभव नहीं। क्योंकि ईश्वर अनंत हैं और उनकी अभिव्यक्ति भी अनंत है। उनकी अभिव्यक्ति के रूप भी असंख्य हैं। प्रत्येक रूप अपने अंदर छिपी हुई किसी दिव्य शक्ति, विभूति की प्रतीक है और देख सकने वाली आंख के लिये प्रत्येक ‘सांत’ अपने-अपने ढंग से अनंत को प्रकट कर रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.16-18
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