विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीउपक्रमजिसके कलेजे में गड़ जाता है, उसे वहीं पड़े रहने दो तब-तक तो ठीक है; परंतु यदि निकालने की कोशिश करोगे तो कलेजा ही खींचकर ले जाएगा। ‘कृ’ में अंकुश है; कृष्णा नाम- यह जबरदस्ती खींचकर अपने में जोड़ता है। कृष्ण – कृष्ण – कृष्ण !
मधुर से मधुर – ‘मधुरादपि मधुरं’, मीठे से मीठा, और ‘मंगलादपि मंगलम्’ मंगल से भी मंगल- यह है भगवान का नाम! यह नाम कान में पड़े तो भी ठीक था मगर यह तो आँख को भी खींच लेता है। आँख को खींचेगा तो नाक को भी खींच लेगा। नाक को खींचेगा तो जीभ को भी खींच लेगा! और जब आँख – कान – नाक – जीभ खिंच जायेंगी तो त्वचा को भी खींच लेगा और यह दिल-दिमाग को भी खींच लेगा। इसीलिए कृष्ण को कृष्ण कहते हैं क्योंकि यह ‘कर्षति आकर्षति’- यह लोगों के दिल-दिमाक को खींच लेता है। जहाँ ब्रह्म विचार भोला-भाला अपनी जगह पर रहता है, कोई उसके पास जाये तो मिले, न जाये तो मिले क्योंकि ब्रह्म तो अवधूत है- ‘ब्रह्म अवधूतवत्’! वहीं यह श्रीकृष्ण अवधूतवत् नहीं हैं। पंढरीनाथ की बात आपने सुनी होगी-
अरे! ओ बटोहियो! ‘मायात पान्थाः पथि भीमरथ्याः’- भीमानदी के तट पर मत जाना। क्यों? क्योंकि वहाँ एक नौजवान रहता है ‘किशोरकः।’ अच्छा, हुलिया बता दो पूरी उसकी? कहा- तमाल वृक्ष के समान काला है। काले रंग का है, किशोर है। देखो उसका जादू किसी को छूता नहीं, छेड़ता नहीं, बोलता नहीं। हाथ पर कर रखे है और इतना धूर्त है कि उसकी छठी में ही धूर्तता डाल दी हैं यशोदा मैया ने। एक जगह खड़े-खड़े ही लोगों के दिल का जो धन है चित्तवित्त, हृदय को जो पूँजी, उसको छीन लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रवचन संख्या | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज