विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का हेतु-3संसार में लोग अपने संप्रदाय के लिए भी संघटित हो जाते हैं तो वह धर्म के लिए प्रेम है। मोक्ष से भी प्रेम करते हैं लेकिन प्रेम किसके लिए है यह विचार संसार में नहीं है। इन सबमें प्रेम आत्मगामी होता है, परंतु प्रेम हृदय में उदय हो और भगवान् से जुड़े अर्थात् प्रेम का आश्रय हो आत्मा और प्रेम का विषय हो भगवान्। तब वह भगवत्प्रेम कहलाता है। भगवत्प्रेम आत्मगामी न होकर भगवदोन्मुख होता है। अपना समस्त सुख और प्रयत्न जब भगवद्योग्य बन जाता है तब प्रेम का पूर्णता होती है। प्रेम में जब आगे और पीछे भगवान् हो जाते हैं तब स्वयं प्रेम भी भगवन्य हो जातै हैं। आगे श्याम, पीछे श्याम- जित देख्यौं तित श्याममयी है। अब गोपी ने कहा कि तुम्हारे वक्षःस्थल पर लक्ष्मी विराजमान है, तो यह क्या चोरी से तुमने नारायण की पत्नी लक्ष्मी को अपने वक्षःस्थल पर बसा रखा है? श्रीकृष्ण ने कहा- अरी भोली गोपियो, ये तो हमारे सुनहले बाल हैं, जिनसे वक्षःस्थल पर एक पीली-पीली रेखा बन गयी है, और तुम्हारा दिमाग ऐसा बिगड़ गया है कि स्वाभाविक रूप से जो हमारे वक्षःस्थल पर पीतिमा है, स्वर्णमयी पीत-रेखा है, उसमें लक्ष्मीपने का आरोप करके तुम लक्ष्मी को भी दोष लगा रही हो। बाबा! हमको जो कुछ कहना हो सो कह लो पर जगद्वन्दनीया जो लक्ष्मी हैं, पूज्या हैं, उनको अण्ट-सण्ट क्यों कहती हो? असल में जिसके दिल में जैसा होता है दूसरे के बारे में वैसा ही सोचता है- ‘पापी सर्वत्र पापमाशंकते’ जिसके मन में पाप होता है वह सबको पापी ही समझता है- ‘सर्वं धनमयं लुब्धाः’ लोभी को सब जगह धन दिखता है, कामी को सब जगह कामिनी ही दिखती है; और भक्त को सब जगह नारायण दिखते हैं- ‘नारायणमयं धीराः पश्यन्ति परमार्थतः’ तो जब किसी दूसरे में बुराई दिखे तब यह सोचना चाहिए कि हमारे हृदय में तो ज्ञानस्वरूप नारायण, ज्ञान स्वरूप ब्रह्म बैठा है और वही दूसरे में बैठा है तो यह वहाँ बुराई क्यों दिखा रहा है? सोचना चाहिए कि बुराई हमारे दिल में है, यह रंग हमारे चश्मे में है वहाँ नहीं है, जो इस ढंग से सोचते हैं वे साधक हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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