विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरास के हेतु, स्वरूप और कालतो एक अंग हिले, आँख की केवल पलक चले, केवल भौंह चले, केवल ठुड्डी हिले इसमें सबमें भाव होता है। जैसे- कामशास्त्र के अनुसार रतिविलास के चौरासी आसन होते हैं, जैसे योगशास्त्र के अनुसार चौरासी आसन होते हैं- वीरासन, सिद्धासन आदि; वैसे नृत्य की भी चौरासी मुद्रायें हैं। आप लोग कभी दक्षिण गये हों तो वहाँ चितम्बरम् तीर्थ में पाषाण में नृत्य की चौरासी मुद्रायें खोदी हुई हैं। चिदम्बरम् भगवान नटराज तो हैं ही। इसलिए नृत्य की मुद्राएं वहाँ खुदी हुई हैं। तो वे नटराज हैं और ये नटवर हैं। ‘वर’ शब्द कृष्ण के ही साथ बढ़िया जुड़ता है और किसी के साथ नहीं, शंकरजी को नटवर नहीं बोलते हैं, शंकरजी को नटराज बोलते हैं। नटवर शब्द केवल कृष्ण के साथ जुड़ता है। नचाता कौन है? देखो- वैसे तो सबको नचाने वाला भगवान है। आप जानते ही हैं उसको नचाने का बहुत शौक है :
ब्रह्मा को नचायें, विष्णु को नचायें, शंकर को नचायें, सबको नचाता है भगवान। भगवान वह है जो सबको नचावे। पर कोई ऐसा हो जो भगवान से भी कहे- उठो, नाचो! नचाते ही रहोगे हमेशा कि नाचोगे भी। तो वह कौन है? देखो- परमस्वतंत्र जो ईश्वर है, सर्वाधिक सबका मालिक है। वह सबको को नचाता है लेकिन प्रेम के हाथों नाचता है। तो ईश्वर का भी ईश्वर कौन है? ईश्वर का ईश्वर प्रेम है। प्रेम ईश्वर को भी वश में करता है, यही प्रेम का स्वभाव है। प्रेम का स्वभाव है ईश्वर को भी वश में करके बोले कि अब पहनो पीला कपड़ा। कहा- हाँ हजूर, पीला ही पहनेंगे। बोले- छोटे बन जाओ, बड़े बन जाओ, बायें हो जाओ, दायें हो जाओ, ऊपर हो जाओ, नीचे हो जाओ! कि हाँ हजूर, ऐसा ही। यह क्या है? यह प्रेम जो है भगवान को फँसाता है। आपको आश्चर्य होगा कि वेदान्ती लोग मानते हैं कि यह जगत् चेतन ब्रह्म का विवर्त है। विवर्त माने विरुद्ध वर्त्तन, जो चीज जैसी है वैसी न भास करके, उसके विपरीत भासे तो उसको बोलते हैं विवर्त। आपलोग मनुस्मृति पढ़ते होंगे, वेदान्तदर्शन पढ़ते होंगे। ठीक है प्रेमशास्त्र पढ़ने का काम तो कम पड़ता होगा आपको। सबको मिलता भी नहीं है, सबकी रुचि भी नहीं होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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