विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णनगोपी का स्वभाव है इंद्रियों के द्वारा भगवत-रस का पान करना। यह स्वभाव सांख्यों और योगियों का भी नहीं है और वेदान्तियों का भी नहीं है। उनके अध्यात्मशास्त्र में तो इन्द्रिय और विषय के संयोग में जो सुख मिलता है वह अनित्य है, असत्य है। योगी के इन्द्रिय का विषय संसार हैं, सांख्ययोगी के इन्द्रिय का विषय तो साक्षात् नराकृति परब्रह्म है। इसलिए यहाँ इन्द्रिय और विषय के संयोग में जो रस का दान और आदान है वह कोई लौकिक रस का दानादान नहीं है, वह तो भगवत रस का ही दानादन है। गोपी शब्द का अर्थ देखो- ‘गोः इन्द्रियं पान्ति रक्षन्ति इति गोप्यः’ जो लौकिक विषय के इंद्रियों के सेवन से अपने को बचाती हैं उनका नाम गोपी है। जो इंद्रियो को बचाती हैं वे गोपी। और ‘गोभिः कृष्णरसं पिबन्ति इति गोपी’- जो अपने स्वरूपभूत परमार्थ परमात्मा हैं श्रीकृष्ण, उनके रस का पान इंद्रियों के द्वारा करती हैं वे गोपी। इसलिए गोपीपने में दोनों बात हैं, इंद्रियों से भगवत रस का पान और लौकिक विषय सेवन से इंद्रियों की रक्षा। भगवत-रस का पान किसको प्राप्त होगा, जो विषयरस से अपनी इंद्रियों को बचावेगा और जो विषयरस में अपनी इन्द्रियों को लगावेगा उसको भगवत – रस नहीं मिलेगा। अगर परपुरुष के द्वारा इंद्रियरस का पान होवे तो नरक में जाना पड़ेगा और स्वपुरुष के द्वारा इन्द्रियरस का पान करे तो धर्मानुकूल होने से स्वर्ग की प्राप्ति होगी। परंतु यह भगवत- रस नरक-स्वर्ग दोनों में ले जाने वाला नहीं है। भगवत-रस वह होता है जो सर्वदेश में, सर्वकाल में, सर्ववस्तु में, और सर्वप्रक्रिया के द्वारा उपलब्ध होता है। क्योंकि जब भगवान उपलब्ध हैं तो उनकी उपलब्धि की प्रक्रिया भी सर्व है। समझो भगवान सब है तो इसमें मिलेगा कि नहीं मिलेगा? भगवान सर्वकाल में हैं तो अब मिलेगा कि नहीं? भगवान सर्वदेश में है तो यहीं मिलेगा कि नहीं मिलेगा? जो इस समय न हो वह भगवान नहीं, और जो यहीं न हो सो भगवान नहीं, और जो यही हो सो भी भगवान नहीं? भगवान किसी से व्यतिरिक्त नहीं होता। ब्रह्मैवेदं सर्वम्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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