विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीभगवान ने वंशी बजायीबाँसुरी प्राणों को खींचती है। क्यों? बोले कि इसका स्वर प्राण से निकलता है। अगर आप वंशी की ध्वनि ध्यान से सें या वंशी को ध्यान से बजावें, तो प्राणधाम करने की जरूरत नहीं पड़ती है। प्राणायाम से जो सिद्धि मिलती है वह बाँसुरी बजाने से अपने आप मिल जाती है। बिना प्राणायाम के बाँसुरी बजेगी ही नहीं, वह तो ‘पी-पी’ हो जाएगी। बाँसुरी ‘पी-पी’ नहीं होती बड़ी सुरीली होती है और लम्बी खिंचती है। वह दिल को खींच लेती है, दिमाग को खींच लेती है। बाँसुरी क्यों बजायी? जैसे ज्ञानमार्ग में शब्द के द्वारा ही प्राणी को ब्रह्मज्ञान होता है, परंतु वहाँ आत्मा और ब्रह्म की एकता के बोधक शब्द से ब्रह्मज्ञान होता है; वैसे ही भगवान के प्रेम की प्राप्ति भी शब्द से होती है। दोनों ओर शब्द ही चाहिए; वहाँ जो शब्द है वह सार्थक वाक्य है और यहाँ अस्फुट मधुर ध्वनि है। यहाँ नादात्मक शब्द है। भगवान नाद के द्वारा आकृष्ट करते हैं, इसके लिए पहले वंशी कलध्वनि है। अब देखो भाई! शब्द बोलने वाला भी कुलीन चाहिए। विश्वास- पात्र चाहिए। तो इसका नाम है वंशी। इससे बढ़कर वंशवाला और कौन होगा? वंश, भी चाहिए, केवल मीठी-मीठी बातों में नहीं आ जाना चाहिए। वंश भी उत्तम होना चाहिए, कि इसकी बात विश्वास करने योग्य है कि नहीं। तो भगवान ने इसलिए वंशी ली। इसको हरिवंश बोलते हैं। भगवान का वंश हरिवंश। अच्छा; दूसरी बात देखो इसमें वंशी को मुरली बोलते हैं। मुर माने तुम्हारे दिल में जो ऐंठन है, उसको जो छीन ले, वह है मुरली- वंशी। तुम्हारे भीतर अभिमान है- इतराते हुए चलते हैं कि ए। हमारी ओर देखना मत, हमारे बराबर भला कौन। जो तुम्हारे दिल में गाँठ बन गई है, इस मुर को यह मुरली छीन लेती है। यह मुरासुर है और मुरारी हैं भगवान। ऐसा बोलते हैं कि दिल की गाँठ आठ है। अष्ट पाशों से यह मुरली मुक्त कर देती है- घृणा, शंका, भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पञ्चमी । अष्टौ पाशा मुराभिधाः – ‘मुर’ के फंदे है आठ। अरे बाबा, घृणा आ गयी मन में। ये पाप-पुण्य के जो संस्कार हैं मन में, उनसे घृणा आती है। शंका आ गयी मन में- विश्वसनीय है कि नहीं? लज्जा आ गयी मनमें, निन्दा का भाव आ गया मन में, कुल का अभिमान आ गया, शील का अभिमान आ गया, धन का अभिमान आ गया। ये क्या हैं? ये जहाँ अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण के मिलने में बाधा डालते हैं, वहाँ इनका नाम होता है- संसार का फंदा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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