योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
सम्पादकीय
उधर अंग्रेजी के कुछ ग्रन्थों से भी उन्होंने सहायता ली जिनका उल्लेख वे ग्रन्थ की प्रस्तावना में करते हैं। मथुरा-क्षेत्र की भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक जानकारी के लिए उन्होंने एफ. एस. ग्राउस की ‘मथुरा मेमोयर’ नामक पुस्तक से सहायता ली। ग्राउस एक हिन्दी-प्रेमी आई. सी. एस. अधिकारी थे जो मथुरा तथा बुलन्दशहर के जिलाधीश रह चुके थे। उन्होंने दो बंगाली लेखकों की अंग्रेजी पुस्तकों से भी सहायता ली है। जिसकी चर्चा वे अपनी प्रस्तावना में करते हैं। सम्भवतः वे बंकिम-रचित कृष्ण-चरित्र को नहीं देख सके थे। प्रथम तो लाला जी बँगला नहीं जानते थे और तब तक उसका हिन्दी अनुवाद भी नहीं हुआ था। तथापि अपने विस्तृत अध्ययन, मौलिक विवेचना-कौशल और सर्वोपरि कृष्ण जैसे युगपुरुष के प्रति असामान्य श्रद्धा भाव से ही लाला जी जैसा उत्कृष्ट लेखक इस श्रेष्ठ कृति की रचना कर सका। निश्चय ही कृष्ण के प्रति उनकी यह आस्था, कृष्ण के महामानव होने में उनका प्रगाढ़ विश्वास तथा पुराण वर्णित कृष्णचरित्र के प्रति उनकी अनास्था एवं अरुचि का प्रमुख कारण उनके अन्तर्मन में उभरे वे ही विचार थे जो स्वामी दयानन्द की बौद्धिक विरासत ने उन्हें दिये थे। अतः प्रकारान्तर से यही मानना होगा कि कृष्णचरित्र के अध्ययन और आलोचन में जो सूत्र स्वामी दयानन्द ने दिया था उसका विस्तार करना ही लाला जी की इस कृति का लक्ष्य रहा है। कालान्तर में आर्यसमाज से जुड़े अन्य लेखकों ने भी कृष्णचरित्र की विवेचना और मीमांसा उसी शैली में की है जिसे लाला जी ने आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया था। गुरुकुल कांगड़ी के भूतपूर्व आचार्य पं. चमूपति का ‘योगेश्वर कृष्ण’ 2006 वि. में प्रकाशित हुआ तथा इन पंक्तियों के लेखक की कृति ‘श्रीकृष्णचरित्र’ प्रथम बार 1958 में प्रकाशित हुई। लाला जी ने इस कृति को आज से 103 वर्ष पूर्व 6 नवम्बर, 1900 को पूरा किया था। इस पुस्तक का कालान्तर में हिन्दी अनुवाद गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में अंग्रेजी के अध्यापक मास्टर हरिद्वारीसिंह ‘बेदिल’ ने किया था। मास्टर जी का विस्तृत परिचय तो उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु जो जानकारी मिलती है उससे पता चलता है कि वे उर्दू में काव्य रचना भी करते थे जो उनके ‘बेदिल’ उपनाम से प्रकट होता है। उन्होंने प्रसिद्ध रूसी लेखक निकोलस नोटोविच की उस पुस्तक का भी हिन्दी में अनुवाद किया था जिसमें ईसा मसीह की कथित भारत-यात्रा का विवरण दिया गया है। यह पुस्तक ‘भारत शिष्य ईसा’ नाम से 1914 में प्रकाशित हुई थी। लाला लाजपतराय-रचित ‘कृष्णचरित्र’ का यह अनुवाद द्वितीय बार पं. शंकरदत्त शर्मा द्वारा वैदिक पुस्तकालय मुरादाबाद से 1924 में प्रकाशित हुआ था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज