योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा
क्या वास्तव में इसी प्रकार के मनुष्यों का अभाव नही है जिसके कारण सारा देश दुखी है और नित्य नई आपत्तियों और क्लेशों का सामना करता है। देश में देशभक्ति, जाति प्रेम और धर्म-प्रचार का हल्ला मचा हुआ है तो भी सारे देश में एक आदमी भी ऐसा दिखाई नहीं पड़ता जिसने देशभक्ति को, जाति-प्रेम को और धर्म-प्रचार को अपना मुख्य कर्त्तव्य बनाया हो। किन्तु क्या सम्भव था कि इतने हल्ला-गुल्ला होने पर भी धर्म की अवस्था इस देश में एक इंच भी उन्नत न होती और इस देश का दुख निवारण न होता। यह ठीक है कि धर्म की चर्चा तो बहुत कुछ है, वाद-विवाद भी बहुत होता है, व्याख्यान और उपदेश भी अधिक होते हैं, चंदे भी खूब दिये जाते हैं, किन्तु कमी है तो यह है कि धर्म-परायण जीवन नहीं है और धर्म-परायण हुए बिना धर्म पास ही नहीं फटकता। धर्म तो उन लोगों के पास भी नहीं जाता जो उसे अपना जीवन नहीं बनाते। धर्म इतनी ईर्ष्या करने वाला है कि वह अपने सामने दूसरे को देख भी नहीं सकता। वह तो अपने भक्त को अपना ही मतवाला बनाना चाहता है। उसको न खाने से रोकता है, न पीने से, न भोगने से और न द्रव्य-संचय करने से, न संतान पैदा करने से और न स्त्री रखने से। वह तो यही चाहता है कि जो कुछ करो मेरे लिए करो, मेरे नाम पर करो, मेरी खातिर करो, मेरे परायण होकर करो। वह अपने भक्त से यह नहीं चाहता, कि उसका भक्त किसी से प्रेम न करे, वह देश की सेवा न करे, वह जाति की सेवा न करे, वह लोगों की सहायता न करे। वह तो कहता है चाहे जितना प्रेम करो, परन्तु जिस चीज से प्रेम करो वह इसलिए करो जिससे तुम्हारा वह प्रेम मेरे नाम पर हो, मेरी खातिर हो और मेरे अर्पण हो। |
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