ज्ञानेश्वरी पृ. 745

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी ॥32॥

और जैसे चोरों के लिये राजमार्ग हितकर नहीं होता और वे जिस समय चलते हैं, उस समय प्रायः राजमार्ग से बचकर चलते हैं अथवा लोगों के लिये जो दिन होता है, राक्षसों के लिये वही रात होती है; जैसे किसी भाग्यहीन को जमीन में गड़ा हुआ खजाना कोयलों का ढेर ही प्रतीत होता है अथवा सच्चा आत्मस्वरूप जैसे जीव को नहीं के सदृश जान पड़ता है, ठीक वैसे ही जिस बुद्धि को समस्त धर्म कृत्य पातक ही जान पड़ते हैं, जो बुद्धि खरे को खोटा समझती है, सारे अर्थों को अनर्थों का रूप प्रदान करती है और सद्गुणों को दोष मानती है, किंबहुना वेदों में जो बातें उचित और करणीय बतलायी गयी हैं, उन्हीं सबको जो बुद्धि अनुचित और अकरणीय समझती है, उस बुद्धि को हे पाण्डुपुत्र! बिना किसी से पूछे ही तामसी कहना चाहिये। भला काली रात की भाँति ऐसी बुद्धि धर्म-कार्य के लिये किस प्रकार योग्य कहीं जा सकती है? हे आत्मबोधरूपी कुमुदचन्द्र! इस प्रकार मैंने तुम्हें बुद्धि के तीनों भेद स्पष्ट रूप से बतला दिये हैं। अब इसी बुद्धि के आधार पर निश्चय करके जो धृति समस्त कार्यों में सहायक होती है, उस धृति के भी तीन प्रकार उनके लक्षणोंसहित मैं तुमकों बतलाता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (724-732)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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