ज्ञानेश्वरी पृ. 215

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग

अर्जुन वास्तव में उस समय एक कामधेनु का बछड़ा ही हो रहा था और उस पर कल्प तरु के मण्डप की प्रसन्न छाया थी। ऐसी स्थिति में यदि मनोरथ-सिद्धि स्वयं ही उसके समक्ष साकार होकर आ जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? श्रीकृष्ण जिसे कुपित होकर मार डालें, वह भी परब्रह्म के साक्षात्कार का भाजन हो जाता है। फिर वही श्रीकृष्ण जिसे कृपापूर्वक ब्रह्म का उपदेश दें, उसे ब्रह्म का साक्षात्कार क्यों न प्राप्त होगा? जब हम कृष्णरूप होते हैं, तब हमारे अन्तःकरण में कृष्ण ही विराजमान रहते हैं और उस अवस्था में सिद्धि स्वतःकरण में कृष्ण ही विराजमान रहते हैं और उस अवस्था में सिद्धि स्वतः हमारे संकल्प के आँगन में आ धमकती है। परन्तु ऐसा अद्भुत प्रेम सिर्फ अर्जुन में ही था और इसीलिये उसके मनोरथ भी सर्वदा सफल हुआ करते थे। यही कारण है कि श्रीअनन्त भगवान् ने पहले से ही यह जान लिया था कि अब अर्जुन ऐसा ही सवाल करेगा; और इसीलिये श्रीकृष्ण ने अर्जुन के लिये उत्तररूपी पक्वान्न पहले से ही परोस कर रखा था। बच्चा ज्यों ही स्तन की तरफ लपकता है, त्यों ही माता समझ लेती है कि यह भूखा है। उस समय यह बात नहीं होती कि बच्चे को पहले माता से दूध पिलाने के लिये कुछ कहना पड़े और तब वह उसे दूध पिलावे। माता बिना उसके कहे ही उसकी लालसा समझ लेती है और उसे पूरी भी कर देती है। अत: यदि कृपालु गुरु में अपने शिक्षक के प्रति इतना अगाध प्रेम दिखायी पड़े तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। अच्छा, अब यह ध्यानपूर्वक सुनिये कि इस पर देव ने क्या कहा।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (4-14)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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