श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
अर्जुन वास्तव में उस समय एक कामधेनु का बछड़ा ही हो रहा था और उस पर कल्प तरु के मण्डप की प्रसन्न छाया थी। ऐसी स्थिति में यदि मनोरथ-सिद्धि स्वयं ही उसके समक्ष साकार होकर आ जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? श्रीकृष्ण जिसे कुपित होकर मार डालें, वह भी परब्रह्म के साक्षात्कार का भाजन हो जाता है। फिर वही श्रीकृष्ण जिसे कृपापूर्वक ब्रह्म का उपदेश दें, उसे ब्रह्म का साक्षात्कार क्यों न प्राप्त होगा? जब हम कृष्णरूप होते हैं, तब हमारे अन्तःकरण में कृष्ण ही विराजमान रहते हैं और उस अवस्था में सिद्धि स्वतःकरण में कृष्ण ही विराजमान रहते हैं और उस अवस्था में सिद्धि स्वतः हमारे संकल्प के आँगन में आ धमकती है। परन्तु ऐसा अद्भुत प्रेम सिर्फ अर्जुन में ही था और इसीलिये उसके मनोरथ भी सर्वदा सफल हुआ करते थे। यही कारण है कि श्रीअनन्त भगवान् ने पहले से ही यह जान लिया था कि अब अर्जुन ऐसा ही सवाल करेगा; और इसीलिये श्रीकृष्ण ने अर्जुन के लिये उत्तररूपी पक्वान्न पहले से ही परोस कर रखा था। बच्चा ज्यों ही स्तन की तरफ लपकता है, त्यों ही माता समझ लेती है कि यह भूखा है। उस समय यह बात नहीं होती कि बच्चे को पहले माता से दूध पिलाने के लिये कुछ कहना पड़े और तब वह उसे दूध पिलावे। माता बिना उसके कहे ही उसकी लालसा समझ लेती है और उसे पूरी भी कर देती है। अत: यदि कृपालु गुरु में अपने शिक्षक के प्रति इतना अगाध प्रेम दिखायी पड़े तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। अच्छा, अब यह ध्यानपूर्वक सुनिये कि इस पर देव ने क्या कहा।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (4-14)
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