श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
जिसके स्मरण मात्र से ही शिष्य में समस्त विद्याएँ आ जाती हैं, उन श्रीगुरुचरणों की मैं वन्दना करता हूँ। जिनके स्मरण से ही काव्य-शक्ति आ जाती है, सब प्रकार की रसाल वक्तृताएँ जिह्वाग्र पर आ बैठती हैं, वक्तृत्व की मधुरता के आगे अमृत भी फीका पड़ जाता है, हर एक अक्षर के सम्मुख समस्त रस टहल बजाते रहते हैं, उद्दिष्ट अर्थ खुल जाता है, रहस्य-ज्ञान हो जाता है तथा पूर्ण आत्मबोध हाथ लग जाता है, वे श्रीगुरुचरण ज्यों ही हृदय में आ बैठते हैं, त्यों ही ज्ञान का भाग्योदय हो जाता है। इसीलिये उन श्रीगुरुचरणों को नमन करके अब मैं यह बतलाता हूँ कि पितामह (ब्रह्मा) के भी पिता लक्ष्मीपति ने क्या कहा।[1]
श्रीभगवान् ने कहा- “हे पार्थ सुनो। देह को ‘क्षेत्र’ कहते हैं और जिसको इसका ज्ञान होता है उसे ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं।[2]
पर इस सम्बन्ध में तुम यह निश्चित रूप से जान लो कि मैं ही ‘क्षेत्रज्ञ’ हूँ क्योंकि मैं ही समस्त क्षेत्रों (शरीरो) को पोषण करता हूँ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो वास्तविक ज्ञान है, वही मेरी दृष्टि में सर्वोत्तम ज्ञान है।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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