श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
आपकी जो योगमाया है वही विश्वरूप को प्रकट करती है तथा जीवरूपी जो गण हैं उनके स्वामी आप ही हैं, उन आप श्रीगुरुराज गणेश को मैं नमन करता हूँ। त्रिगुणरूपी त्रिपुरों से घिरी हुई जीवरूपी किले में बन्द इस आत्मारूपी शम्भु की मुक्ति आपके स्मरण से होती है। अत: यदि शम्भु के साथ आपकी तुलना की जाय तो आपकी ही श्रेष्ठता अधिक सिद्ध होती है, पर साथ ही मोक्ष के अभिलाषीजनों को इस मायारूपी सागर से पार करने के लिये नौका के सदृश जिस हल्केपन की जरूरत होती है, वह हल्कापन भी आप में है। जिन लोगों को आपके बारे में जरा-सा भी ज्ञान नहीं है, उन्हीं लोगों को आप वक्रतुण्ड जान पड़ते हैं; पर जो ज्ञान से भरपूर हैं, उन्हें आप निरन्तर सरल ही दृष्टिगत होते हैं। यदि आपकी दिव्य दृष्टि पर दृष्टिपात किया जाय तो वह अत्यन्त कोमल और सूक्ष्म प्रतीत होती है; पर उसी दृष्टि को खोल और बन्द करके आप उत्पत्ति और प्रलय बड़ी सरलता से कर देते हैं। जिस समय आप अपना प्रवृत्तिरूपी कर्ण फड़काते हैं, उस समय मद तथा रस से युक्त जो सुगन्धित वायु निकलती है, उस कारण जीवरूपी भ्रमर आपके गण्डस्थल पर ऐसे सुशोभित होते हैं, मानों नील कमलों से आपकी पूजा की गयी है। तदनन्तर जिस समय आप निवृत्तिरूपी दूसरा कर्ण हिलाते हैं, उस समय मानो उस पूजा का विसर्जन हो जाता है और आप अपने खुले हुए सुन्दर आत्मरूप में भासमान होते हैं। आपकी वामांगी जो माया है, उसके ललित नृत्य के कारण यह जो नाम-रूपों वाला जगत्-रूपी मोह का भास उत्पन्न होता है, वह भी आपके ताण्डव कौशल का ही परिचय देता है। सिर्फ यही नहीं, अपितु और भी आश्चर्य की बात है कि हे गुरुराज गणेश! आपके साथ जिसका आत्मीयतापूर्ण सम्बन्ध हो जाता है, वह सद्यः आत्मीयता हेतु परकीय हो जाता है-उस आत्मीयतापूर्ण सम्बन्ध अथवा भाई-चारा के व्यवहार से वंचित हो जाता है। ज्यों ही आप सारे बन्धनों का क्षय करते हैं, त्यों ही मुनष्य के हृदय में यह भाव उमड़ता है कि आप जगद्बन्धु हैं और भक्त की आनन्दवृत्ति आप में विलीन होने लगती है। फिर हे देवराज! द्वैत भाव का पूर्णतया लोप हो जाता है और उसे अपने देह का भान भी नहीं रह जाता। |
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