ज्ञानेश्वरी पृ. 144

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योगरूप के जिस मार्ग का उपदेश किया था और आगे इस अध्याय में जो उपदेश करेंगे, वह अब ध्यानपूर्वक सुनो। नारायण श्रीकृष्ण ने जब अर्जुन के समक्ष सहज ब्रह्मरस का यह भोजन परोसा था, तब हम अतिथि बनकर वहाँ पहुँच गये। यह कितना बड़ा सौभाग्य है। प्यास से व्याकुल व्यक्ति जिस समय जल का स्पर्श अपने होठों से करता है, उस समय वह जल उस व्यक्ति को अमृत की भाँति ही जान पड़ता है। ठीक वैसा ही सुअवसर आज हम लोगों के समक्ष आया है; क्योंकि जो प्राप्त होने में अत्यन्त कठिन वह ब्रह्मज्ञान हमारी मुट्ठी में आ गया है। तब धृतराष्ट्र ने कहा-“हे संजय! ऐसी बातें तो मैंने तुमसे पूछी ही नहीं थी।” धृतराष्ट्र की यह बात सुनकर संजय ने उनके मनोभाव को पहचान लिया। संजय को यह अच्छी तरह से मालूम हो गया कि इस समय महाराज धृतराष्ट्र को केवल पुत्रमोह ने घेर लिया है। यह बात जानकर वह मन-ही-मन हँसा और इस बुड्ढे को पुत्रमोह ने पागल कर दिया है और नहीं तो यदि यथार्थरूप से विचार किया जाय तो इस समय श्रीकृष्ण और अर्जुन में जो संवाद हुआ था, वह कितना चित्ताकर्षक है! परन्तु मोह से मूढ़ धृतराष्ट्र को इन बातों से क्या प्रयोजन! जो जन्मान्ध हो, भला वह कभी देख सकता है?

संजय ने इस बात का विचार अपने मन में तो किया, परन्तु प्रत्यक्षतः उसने कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि उसे इस बात का भय था कि मेरी इस बात को सुनकर यह बुड्ढा आग बबूला हो जायगा। परन्तु संजय का मन इस बात पर अत्यन्त प्रसन्न हो उठा कि श्रीकृष्ण और अर्जुन का यह संवाद मुझे सुनने को मिला। उस आनन्द के तृप्ति से भगवान् श्रीकृष्ण के बोलने का अभिप्राय मन में लेकर वह धृतराष्ट्र को आदर के साथ सुनायेगा। वह संवाद गीता का छठा अध्याय है जो तत्त्व निर्णय का स्थान है। जैसे क्षीरसिन्धु का मन्थन करने पर सब रत्नों का सार अमृत हाथ लगा था, वैसे ही गीता के तत्त्व-ज्ञान का सार अथवा विवेकरूपी समुद्र का उस पार का तट या योगरूपी सम्पत्ति का खुला हुआ भण्डार यह छठा अध्याय है। गीता का यह वही छठा अध्याय है जिसमें आदि प्रकृति स्तब्ध होकर बैठी है, अर्थात् उस मूल प्रकृति का यह छठा अध्याय विश्रांति स्थान है। जहाँ वेदों की बोलती बन्द हो जाती है और जहाँ से गीतारूपी वल्ली का अंकुर प्रस्फुटित होता है अर्थात् विकसित होता है। मैं भी इस अध्याय का वर्णन साहित्य के प्रकाश में आलंकारिक भाषा में करूँगा। आप लोग मन लगाकर सुनें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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