ज्ञानेश्वरी पृ. 746

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


धृत्या यया धारयते मन:प्राणेन्द्रियक्रिया: ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृति: सा पार्थ सात्त्विकी ॥33॥

जिस समय सूर्योदय होता है, उस समय चौर्यकर्म के साथ-ही-साथ अन्धकार का भी अवसान हो जाता है अथवा जैसे राजाज्ञा से समस्त प्रकार के बुरे कर्म बन्द हो जाते हैं अथवा जब वायु तीव्र गति से बहने लगती हैं तब आकाश में बादल छँट जाते हैं तथा उनकी गर्जना भी बन्द हो जाती है; अगस्त्य-ऋषि के दर्शन होते ही जैसे समुद्र डरकर शान्त हो जाता है अथवा चन्द्रोदय होते ही जैसे कमल बन्द हो जाते हैं अथवा जिस समय कोई मतवाला हाथी चलने के लिये अपना एक पैर उठाता है, उस समय यदि दहाड़ता हुआ सिंह भी उसके सम्मुख आ जाय तो जैसे वह हाथी अपना पैर उसी तरह ऊपर उठाये रहता है तथा नीचे पृथ्वी पर नहीं रखता, ठीक वैसे ही जिस समय मनुष्य में धृतिका संचार होता है, उस समय मन इत्यादि के समस्त व्यवहार जिस दशा में होते हैं, उसी दशा में एकदम बन्द हो जाते हैं। हे किरीटी! उस समय इन्द्रियों तथा उसके विषयों का सम्बन्ध स्वतः टूट जाता है और दसों इन्द्रियाँ मनरूपी माता के उदर में समा जाती हैं। ऊर्ध्व वायु और अधो वायु का मार्ग बन्द कर प्राणवायु नौ वायुओं की गठरी बाँधकर मध्यमा यानी सुषुम्ना में चली जाती है। उस समय बुद्धि मन पर से संकल्प-विकल्परूपी वस्त्र हटाकर और इस प्रकार उसे वस्त्रविहीन करके पीछे की ओर एकदम मौन साधकर बैठ जाती है। इस प्रकार जिस महान् धैर्य के आगे मन, प्राण और इन्द्रियों को अपने सारे व्यापार त्यागने पड़ते हैं और तब वे सब निर्लेप स्थिति में उसी प्रकार योग की युक्ति से ध्यान के मठ यानी हृदयकोश में बन्द हो जाते हैं और फिर जिस समय तक उनका चक्रवर्ती सम्राट् परमात्मा उन्हें बन्धनमुक्त नहीं करता, उस समय तक जो धैर्य बिना किसी लोभ के चक्कर में पड़े उन सबको वहीं रोके रहता है, निश्चितरूप से जान लेना चाहिये कि वही धृति सात्त्विक है।” उस समय यही बात लक्ष्मीकान्त श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कही थी।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (733-744)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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