ज्ञानेश्वरी पृ. 744

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


यया धर्ममधर्म च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी ॥31॥

बगुलों के गाँव में जैसे जल मिला हुआ दूध ग्रहण किया जाता है अथवा जैसे नेत्रहीन को अहर्निष की पहचान नहीं होती अथवा जो मधुप पुष्पों का मकरन्द निकाल सकता है, वह यदि काष्ठ को छेदने में प्रवृत्त हो तो भी उसकी मधुपता समाप्त नहीं होती, ठीक वैसे ही जो बुद्धि धर्मरूप उचित कर्मों और अधर्मरूप निषिद्ध कर्मों का विचार न करके व्यवहार करती है, वह बुद्धि राजसी कहलाती है। जो नेत्रों के सहयोग के बिना ही मोती लेता है उसे शायद ही शुद्ध मोती प्राप्त होता है और उसके खाते में शुद्ध मोती का न मिलना ही आता है। ठीक इसी प्रकार यदि दैववश निषिद्ध कर्म न प्राप्त हों, तभी जो बुद्धि उन निषिद्ध कर्मों से बचती है और नहीं तो सामान्यतः जो बुद्धि करणीय और अकरणीय सभी प्रकार के कर्मों को एक-सा समझती तथा समानरूप से करती चलती है, उसी बुद्धि का नाम राजसी है। जैसे पात्र और अपात्र का विचार न करके समस्त जनसमुदाय को निमन्त्रित कर दिया जाता है, ठीक वैसे ही इस प्रकार की बुद्धि भी शुद्धि और अशुद्धि का विचार नहीं करती और सभी तरह से कर्मों को अंगीकार करती है।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (718-723)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः