श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
बगुलों के गाँव में जैसे जल मिला हुआ दूध ग्रहण किया जाता है अथवा जैसे नेत्रहीन को अहर्निष की पहचान नहीं होती अथवा जो मधुप पुष्पों का मकरन्द निकाल सकता है, वह यदि काष्ठ को छेदने में प्रवृत्त हो तो भी उसकी मधुपता समाप्त नहीं होती, ठीक वैसे ही जो बुद्धि धर्मरूप उचित कर्मों और अधर्मरूप निषिद्ध कर्मों का विचार न करके व्यवहार करती है, वह बुद्धि राजसी कहलाती है। जो नेत्रों के सहयोग के बिना ही मोती लेता है उसे शायद ही शुद्ध मोती प्राप्त होता है और उसके खाते में शुद्ध मोती का न मिलना ही आता है। ठीक इसी प्रकार यदि दैववश निषिद्ध कर्म न प्राप्त हों, तभी जो बुद्धि उन निषिद्ध कर्मों से बचती है और नहीं तो सामान्यतः जो बुद्धि करणीय और अकरणीय सभी प्रकार के कर्मों को एक-सा समझती तथा समानरूप से करती चलती है, उसी बुद्धि का नाम राजसी है। जैसे पात्र और अपात्र का विचार न करके समस्त जनसमुदाय को निमन्त्रित कर दिया जाता है, ठीक वैसे ही इस प्रकार की बुद्धि भी शुद्धि और अशुद्धि का विचार नहीं करती और सभी तरह से कर्मों को अंगीकार करती है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (718-723)
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