श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
हे श्रोतावृन्द! सुनिये, इसके बाद श्रीअनन्त ने पार्थ से कहा कि अब तुम वास्तव में योगयुक्त हो गये हो। अब मैं तुम्हें ऐसा ज्ञान और विज्ञान यानी प्रपंच-ज्ञान बतलाऊँगा जिससे तुम मुझे उसी प्रकार समस्त अवयवों से अच्छी तरह से जान लो, जिस प्रकार अपने करतल पर रखे हुए रत्न को लोग जान लेते हैं। हो सकता है कि तुम अपने मन में यह सोचते हो कि इस प्रापंचिक ज्ञान से मुझे क्या लेना-देना? तो मैं तुम्हें बतला देना चाहता हूँ कि सर्वप्रथम प्रापंचिक ज्ञान को ही प्राप्त कर लेना बहुत जरूरी है। कारण कि फिर जिस समय ज्ञान की बात आती है, उस समय इस प्रापंचिक ज्ञातृत्व के नेत्र बन्द हो जाते हैं। जैसे तट पर लगी हुई नौका इधर-उधर नहीं चलती, वैसे ही जहाँ प्रापंचिक ज्ञातृत्व की भी दाल नहीं गलती, जहाँ से विचार भी वापस आ जाता है और जिसका मार्ग तर्क भी नहीं ढूँढ़ पाता, हे अर्जुन! उसी को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान से भिन्न जो कुछ है, वह सब प्रपंच है और उसी को विज्ञान कहते हैं और इस प्रपंच में सत्यबुद्धि की जो परिकल्पना होती है, उसी को अज्ञान जानना चाहिये। अब मैं तुम्हें वह गूढ़ रहस्य बतलाता हूँ, जिससे अज्ञान मिट जाता है, विज्ञान समाप्त हो जाता है और हम एकमात्र ज्ञानस्वरूप हो सकते हैं। जिस समय इस प्रकार की स्थिति हो जाती है, उस समय बोलने वाले की बोलती बन्द हो जाती है, श्रोता की सुनने की अभिलाषा भी लुप्त हो जाती है और छोटे-बड़े का भेद-भाव भी शेष नहीं रह जाता। यदि व्यक्ति को ऐसे गूढ़ रहस्य का जरा-सा भी ज्ञान हो जाय, तो भी उसके मन का बहुत कुछ समाधान हो जाता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1-9)
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