श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
हे ओंकारस्वरूप परमेश्वर! आप ही सबके मूल आधार हैं, वेद आपका ही प्रतिपादन करते हैं। मैं आपको नमन करता हूँ। हे आत्मरूप! आपका बोध केवल निजानुभव से ही हो सकता है। सर्वव्यापक प्रभो! आपकी जय हो, जय हो। परम प्रभु निवृत्तिनाथ का यह विनम्र शिष्य प्रार्थना करता है कि हे देव! आप ही सकल अर्थ-ग्रहण की शक्ति एवं बुद्धि के प्रकाशक गणेश हैं। यह निवेदन आप सभी लोग ध्यानपूर्वक सुनें। यह समस्त साहित्य आपकी दिव्य प्रतिमा है और उसकी अक्षरात्मक काया निर्दोष भाव से चमक रही है। स्मृतियाँ ही इस प्रतिमा के अवयव हैं, काव्य-पंक्तियाँ ही उन अवयवों के हाव-भाव हैं तथा अर्थ-सौष्ठव ही उसका सलोना लावण्य है। अठारह पुराण रत्नजटित अलंकार हैं, तत्त्व-सिद्धान्त उन अलंकारों के रत्न हैं और पद-रचना उन रत्नों पर का कुन्दन है। उत्तम पद-लालित्य मानो अनेक रंगों वाले भाँति-भाँति के वस्त्र हैं। इन वस्त्रों का साहित्यरूपी ताना-बाना महीन, मनोहर और चित्ताकर्षक है। और यह भी देखिये कि यदि इन काव्य-नाटकों का रसिकता से संयोजन किया जाय तो उसमें जो घुँघरू होते हैं, वे अर्थरूपी ध्वनि की रुनझुन-नाद करते हैं। यदि इन काव्य-नाटकों के तत्त्व-सिद्धान्तों का गम्भीरतापूर्वक मनन किया जाय तो उनमें जो मर्मस्पर्शी पद हैं, वे ही घुँघरुओं के रत्न हैं। व्यास आदि का जो प्रतिभारूपी गुण है, वही जरीदार कमरबन्द हैं और इस कमरबन्द के पल्ले पर की इन घुँघरुओं की झालर ऊपर की तरफ झलकती है। जो छः तत्त्व सम्प्रदाय हैं, वे ही षड्दर्शन कहलाते हैं, वही इस गणेश-प्रतिमा की छः भुजाएँ हैं और जो इन छः सम्प्रदायों के भिन्न-भिन्न मत हैं, वे ही इस प्रतिमा के छः भुजाओं के परस्पर विध्वंसवादी छः आयुध भी हैं। आयुधों में तर्कशास्त्र परशु है, न्यायशास्त्र अंकुश है और वेदान्तशास्त्र सुमधुर मोदक है। न्याय-सूत्र पर वृत्ति करने वालों के द्वारा निर्दिष्ट किया हुआ, परन्तु अपने आप टूटा हुआ वही खण्डित दाँत, जो बौद्धमत का संकेत है, एक हाथ में है। सत्कारवाद ही आपका वरदायक कर कमल है तथा धर्म प्रतिष्ठा ही आपका अभयदाता कर है। महासुखदायक परम आनन्द को देने वाला निर्मल विवेक ही आपका सरल शुण्ड-दण्ड है। मतभेदों का निराकरण करने वाला जो संवाद है, वह आपका अक्षत और शुभ्र दाँत है। उन्मेष अथवा ज्ञानतेज का स्फुरण ही विघ्नेश्वर श्रीगणेश जी के चमकते हुए सूक्ष्म नेत्र हैं। इसी प्रकार मुझे ऐसा मालूम होता है कि पूर्व एवं उत्तर-ये दोनों मीमांसाएँ इनके दोनों कान हैं और इन्हीं कानों पर मुनिरूपी मधुप कनपटी से चूने वाले बोधरूपी मदरस का पान करते हैं। तत्त्वार्थरूपी मूँगे से प्रकाशमान द्वैत और अद्वैत दोनों कनपटी हैं और ये दोनों गणेश जी के मस्तक के अत्यन्त सन्निकट होने के कारण मिलकर प्रायः एक-से हो गये हैं। ज्ञानरूपी मकरन्द से सम्पृक्त दशोपनिषद् ही सुमधुर सुगन्धि वाले पुष्प-किरीटवत् मस्तक पर शोभायमान हैं। अकार आपके दोनों चरण हैं, उकार विशाल उदर है और मकार मस्तक का महामण्डल है। इन तीनों के योग से ‘ऊँ’ निष्पन्न होता है जिसमें सम्पूर्ण शास्त्र-जगत् समाविष्ट होता है। इसलिये मैं श्रीगुरु की अनुकम्पा से उस आदिबीज को नमन करता हूँ।
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