श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
इस एकादश अध्याय में पृथापुत्र अर्जुन को विश्वरूप के दर्शन होने की जिस कथा का वर्णन है, वह कथा दो रसों से भरी हुई है। इस कथा में मुख्य तो शान्त रस ही है, पर उसके घर अदृभुत रस अतिथि बनकर आया हुआ है और अन्य रसों को भी उसके साथ आदर मिला हुआ है। हे श्रोतावृन्द! जिस प्रकार वर और वधू के विवाह के समय बराती भी सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण कर सानन्द विचरण करते हैं, उसी प्रकार यहाँ देशी भाषा के सुखासन पर समस्त रस सुशोभित हो रहे हैं। परन्तु हरि और हर के सदृश आपस में प्रेमपूर्वक प्रगाढ़-आलिंगन किये हुए शान्त और अद्भुत रस इतने अधिक और ऐसे अच्छे ढंग से हैं कि यों नेत्रों से भी दृष्टिगोचर होते हैं अथवा अमावस्या में जिस प्रकार सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डल दोनों इकट्ठे हो जाते हैं; उसी प्रकार यहाँ इन दोनों रसों का मिलन हुआ है। गंगा और यमुना के प्रवाहों के मिलन की ही भाँति इन दोनों रसों का भी संगम हुआ है, जिससे यहाँ प्रयाग क्षेत्र ही बन गया है। अब समस्त विश्व इस पावन प्रयाग-तीर्थ में स्नान करके निर्मल हो सकता है। इस अवसर पर गीता को गुप्त सरस्वती समझना चाहिये और सिर्फ उपर्युक्त दोनों रस-प्रवाह व्यक्त हैं; अतः हे श्रोतावृन्द! इस प्रस्तुत अध्याय को मानो त्रिवेणी का संगम ही कहना चाहिये। ज्ञानदेव कहता है कि मेरे परम उदार दाता गुरु श्रीनिवृत्तिनाथ ने ऐसा सुभीता कर दिया है कि इस त्रिवेणी में सिर्फ श्रवण मार्ग से ही लोग सहज में प्रवेश कर सकें। इस संस्कृत तीर्थ के संस्कृत भाषात्मक तट को पार करना अत्यन्त ही दुष्कर है, इसलिये श्रीगुरु ने उन्हें काट-छाँट कर देशी भाषा के शब्दों की ऐसी सीढ़ी बना दिया है, जिसमें धर्म के भण्डार सहज में ही प्राप्त हो सकें। अब इस जगह पर जो श्रद्धालु चाहें, वे स्नान कर सकते हैं, विश्वरूपी प्रयाग माधव के दर्शन कर सकते हैं और जीवन-मृत्यु की सांसारिक परम्परा को तिलोदक दे सकते हैं। इस अध्याय में रसों की ऐसी सुन्दर बहार आयी हुई है कि संसार को श्रवण-सुख का मानो राज्य ही मिल गया है। |
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