श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
संजय उवाच इसके बाद संजय ने धृतराष्ट्र से कहा-“हे महाराज! सुनिये, उस रणभूमि में वह अर्जुन शोकाकुल होकर रोने लगा। अपने वंशजों को युद्धभूमि में देखकर अर्जुन के अन्तःकरण में करुणा का भाव किस प्रकार आया? जिस प्रकार जल के संयोग से लवण घुल जाता है अथवा हवा के झोंके से बादल फट जाते हैं, उसी प्रकार उस धीरचेता का अन्तःकरण भी दयार्द्र हो गया। जैसे राजहंस पक्षी कीचड़ में फँसने के बाद म्लान दीखता है, उसी प्रकार अर्जुन ममता से व्याकुल होकर अत्यन्त कुम्हला गये ऐसा दीखने लगा। पाण्डुकुमार अर्जुन को ऐसे असाधारण मोहपाश में जकड़ा हुआ देखकर शांर्गधर श्रीकृष्ण ने उससे क्या कहा?”[1] कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । “हे अर्जुन! तुम सबसे पहले यह सोचो कि क्या इस रणभूमि में तुम्हारा इस तरह का व्यवहार करना ठीक है? जरा इस बात का भी विचार करो कि तुम कौन हो और क्या कर रहे हो? कहो, तुम्हें यह क्या हो गया है? आज तुम्हें किस बात की कमी पड़ गयी है? अथवा आज तुम्हारा कौन-सा कार्य करना शेष रहा है? तुम्हारे शोक का क्या कारण है? यह खेद किसलिये कर रहे हो? तुम तो ऐसी छोटी-मोटी बातों की कभी परवाह ही नहीं करते! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1-5)
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