ज्ञानेश्वरी पृ. 28

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन: ॥1॥

इसके बाद संजय ने धृतराष्ट्र से कहा-“हे महाराज! सुनिये, उस रणभूमि में वह अर्जुन शोकाकुल होकर रोने लगा। अपने वंशजों को युद्धभूमि में देखकर अर्जुन के अन्तःकरण में करुणा का भाव किस प्रकार आया? जिस प्रकार जल के संयोग से लवण घुल जाता है अथवा हवा के झोंके से बादल फट जाते हैं, उसी प्रकार उस धीरचेता का अन्तःकरण भी दयार्द्र हो गया। जैसे राजहंस पक्षी कीचड़ में फँसने के बाद म्लान दीखता है, उसी प्रकार अर्जुन ममता से व्याकुल होकर अत्यन्त कुम्हला गये ऐसा दीखने लगा। पाण्डुकुमार अर्जुन को ऐसे असाधारण मोहपाश में जकड़ा हुआ देखकर शांर्गधर श्रीकृष्ण ने उससे क्या कहा?”[1]

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥2॥

“हे अर्जुन! तुम सबसे पहले यह सोचो कि क्या इस रणभूमि में तुम्हारा इस तरह का व्यवहार करना ठीक है? जरा इस बात का भी विचार करो कि तुम कौन हो और क्या कर रहे हो? कहो, तुम्हें यह क्या हो गया है? आज तुम्हें किस बात की कमी पड़ गयी है? अथवा आज तुम्हारा कौन-सा कार्य करना शेष रहा है? तुम्हारे शोक का क्या कारण है? यह खेद किसलिये कर रहे हो? तुम तो ऐसी छोटी-मोटी बातों की कभी परवाह ही नहीं करते!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (1-5)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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