श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय: । अब तो मैं यही समझता हूँ कि इसके बाद भी जिन्दा रहने से ज्यादा श्रेयस्कर यही है कि मैं अपने शस्त्र को फेंक दूँ और इन्हीं लोगों के प्रहार को प्रसन्नतापूर्वक सहन करूँ। यदि ऐसा करने में मेरे प्राण भी चले जायँ तो भी वह अच्छी बात है, पर यह घोर पाप करने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है।’ इस प्रकार अर्जुन स्वजनों के वध की कीमत पर प्राप्त राज्यसुख को नरक भोग के सिवा कुछ नहीं माना।[1] संजय उवाच संयज ने धृतराष्ट्र से कहा-‘हे महाराज! उस समय रणभूमि में अर्जुन ने ये सब बातें भगवान से कहीं। फिर आगे क्या हुआ? उसे भी सुनें। इसके बाद अर्जुन को बहुत दुःख हुआ और उसकी दशा असहनीय हो गयी। उसी दुःख के आवेश में वह रथ से नीचे उतर पड़ा। जैसे कोई राजकुमार पदच्युत की दशा में सर्वथा तेजहीन हो जाता है अथवा सूर्य राहु से ग्रसित होने के कारण निस्तेज हो जाता है किंवा महासिद्धि का लोभी तपस्वी भ्रमिष्ट हो जाता है और फिर कामना के वशीभूत होकर वह दीन-हीन हो जाता है, वैसे ही रथ से उतरा हुआ वह अर्जुन दुःख के कारण अत्यन्त जर्जर-सा दिखायी देने लगा। तत्पश्चात् उसने धनुष-बाण का परित्याग कर दिया। उसका धैर्य जाता रहा। उसकी आँखों से अजस्र जलधारा प्रवाहित होने लगी।’ संजय ने कहा-“हे महाराज, बस ऐसी उसकी अवस्था हो गयी, ऐसी घटना उस जगह घटी।” अर्जुन को दुःखी देखकर वैकुण्ठ के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण ने उसे किस प्रकार परमार्थ का ज्ञान कराया, श्रीनिवृत्तिनाथ का दास ज्ञानदेव कहता है कि इसका विशद वर्णन अब आगे मिलेगा जो सुनने में रोचक एवं कुतूहल उत्पन्न करने वाला होगा।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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