ज्ञानेश्वरी पृ. 99

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग

अब श्रवणेन्द्रि के लिये बहुत ही शुभ समय आया है, क्योंकि आज उसके लिये गीतामृत का जो गुप्त धन था वह मिल गया। जो चीज पहले स्वप्नवत् और कल्पित जान पड़ती थी, वही चीज आज वास्तविक सिद्ध हो गयी है। एक तो विषय ही बिल्कुल अध्यात्म-सम्बन्धी विचारों से ओत-प्रोत है, उस पर निरूपणकर्ता हैं जगदीश्वर [1]; और उसमें श्री श्रोता हैं भक्तशिरोमणि अर्जुन! बस, जैसे कोयल के समान स्वर, मधुर सुगन्ध और सुरुचि-इन तीनों का मनमोहक मेल होता है, वैसे ही गीता का यह कथा-प्रसंग बहुत ही आनन्द का हुआ है। यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है कि हम लोगों को यह अमृत की गंगा मिली हुई है। सचमुच आज ही श्रोताओं को उनके जप-तप का फल प्राप्त हुआ है। अब सब इन्द्रियों को ले जाकर इसी श्रवणेन्द्रिय के घर में स्थापित कर देना चाहिये और इस गीता नामक श्रीकृष्ण-अर्जुन-संवादसुख का रसास्वादन करना चाहिये। अब ये अप्रासंगिक जो बात है, उसे रोको, श्रीकृष्ण और अर्जुन का जो संवाद हुआ है, उसे कहो।

जिस समय श्रीकृष्ण और अर्जुन आपस में बातें कर रहे थे, उस समय संजय ने महाराज धृतराष्ट्र से कहा कि अर्जुन सचमुच में दैवी-सम्पत्ति से सम्पन्न है, क्योंकि साक्षात् श्रीनारायण ही उसके साथ अत्यन्त प्रेम से वार्तालाप कर रहे हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण ने अपने पिता वसुदेव, माता देवकी और भाई बलराम को भी जो गहन तत्त्व कभी नहीं बतलाया, उसी तत्त्व को आज उन्होंने अर्जुन को बतलाया। देवी लक्ष्मी जो श्रीकृष्ण की इतनी निकटवर्तिनी हैं, पर फिर भी उन्हें वह प्रेमसुख नहीं मिल पाता। वही श्रीकृष्ण ने प्रेम का सच्चा तत्त्व आज अर्जुन को मिला हुआ है। सनकादिकों को यह बहुत बड़ी आशा थी कि ईश्वरीय प्रेम पूर्णतया हम लोगों को ही मिलेगा; पर अर्जुन की तुलना में उनकी भी आशा पर पानी फिर गया। अर्जुन पर इन जगदीश्वर का प्रेम निरुपम है। इस अर्जुन के भी पुण्य का प्रताप कैसा है कि इसकी प्रीति के लिये ही इस विदेही भगवान् ने देह धारण किया है। मुझे तो ये दोनों एकदम एकरूप ही जान पड़ते हैं।

सामान्यतः जो यागियों के भी पकड़ के बाहर है, वेदार्थ ही समझ से परे है और ध्यान तथा धारणा की शक्ति भी जिसे नहीं देख सकती, वही श्रीकृष्ण आत्मस्वरूप, अनादि और विकाररहित होने पर भी, देखिये, अर्जुन के प्रति कैसे दयालु हो गये हैं। जो कृष्ण त्रिभुवनरूपी वस्त्र की मानो तह ही हैं अथवा आकार आदि विकारों से एकदम भिन्न और परे हैं, उन्हें इस अर्जुन के प्रेम ने किस प्रकार अपने अधीन कर लिया है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कृष्ण
  2. (1-15)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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