ज्ञानेश्वरी पृ. 552

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग

अब मैं अपने हृदय को चौकी बनाकर उस पर श्रीगुरुदेव के चरणों की स्थापना करता हूँ। समग्र इन्द्रियों के यही कुछ प्रस्फुटित पुष्प ऐक्यभाव से अंजलि में भरकर यह पुष्पांजलि मैं अर्घ्य के रूप में श्रीगुरुदेव को समर्पित करता हूँ। अनन्य भक्ति-रस से जो एकनिष्ठ वासना शुद्ध हो चुकी है उसी को चन्दस्वरूप मानकर मैं श्रीगुरु को तिलक लगाता हूँ। प्रेमरूपी विशुद्ध स्वर्ण के नूपुर में श्रीगुरुदेव के सुकोमल चरणों में पहनाता हूँ। अव्यभिचार भाव से शुद्ध हो चुका जो प्रबल प्रेम है, उसी के छल्ले बना कर मैं गुरुदेव के चरणों की अँगुलियों में पहनाता हूँ। आनन्द की सुगन्ध से सुगन्धित अष्ट सात्त्विक भावों का प्रस्फुटित अष्टदल कमल मैं उन पर चढ़ाता हूँ। फिर मैं उनके सम्मुख अहंकार रूपी धूप सुलगा कर श्री गुरु देव के चरणों के सामने सोऽहं रूपी दीप से आरती करता हूँ तथा सम रस भाव से अनवरत उन्हें आलिंगन करता हूँ। मैं गुरुदेव के चरणों के नीचे अपने शरीर और प्राण दोनों की पादुका बना कर रखता हूँ तथा भोग और मोक्ष का राई-नोन उन पर से उतारता हूँ। उनके चरणों की सेवा करने से मुझ में इतनी योग्यता आ जाय कि सारे पुरुषार्थ के अधिकार मुझे उसी में मिल जायँ। इससे ब्रह्मत्व के विश्रामधाम पर्यन्त मेरे ज्ञान का तेज इस प्रकार सहज में और सीधा जा पहुँचे कि उसके कारण मेरी वाणी में अमृत-सिन्धु की मधुरता आ जाय। उस समय मेरे विवेचन के प्रत्येक अक्षर को ऐसा माधुर्य उपलब्ध हो कि उस वक्तृत्व पर से कोटि चन्द्र निछावर किये जा सकें। जैसे पूर्व दिशा में सूर्योदय होने पर वह सारे संसार को प्रकाश रूपी साम्राज्य अर्पित करता है, वैसे ही यह वाणी भी श्रोताओं के समाज को दीपमालिका-सा प्रकाश दिखला सके।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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