ज्ञानेश्वरी पृ. 29

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

तुम तो कभी धीरज को खोने वाले ही नहीं हो। तुम्हारा तो नाम सुनते ही अपयश देशांतर में निकल जाता है। तुम शौर्यवृत्ति के एक मात्र आश्रय हो, क्षत्रिय शिरोमणि हो। तुम्हारा शौर्य तीनों लोकों में व्याप्त है। तुमने युद्ध में भगवान् शिव को पराजित किया है और निवातकवचों का तो अस्तित्व ही मिट्टी में मिला दिया है। यहाँ तक कि तुमने गन्धर्वों को भी अपनी कीर्ति का गान करने में लगा दिया है अर्थात् गन्धर्वों को पराजित किया। तुम्हारे उत्कृष्ट कार्यों के विस्तार की भावना से यह त्रिभुवन भी अत्यन्त तुच्छ जान पड़ता है।

हे अर्जुन! तुम्हारा शौर्य ऐसा विशुद्ध और निष्कलंक है। पर तुम वही परम शूरवीर पुरुषार्थी हो कि आज युद्धभूमि में वीरवृत्ति को त्यागकर तथा सिर झुकाकर इस प्रकार बच्चों की भाँति रुदन कर रहे हो। पर हे अर्जुन! अब तुम्हीं अपने मन में सोचो कि क्या तुम्हें ऐसी करुणा से दीन हो जाना चाहिये? क्या कभी अन्धकार ने सूर्य को ग्रसा है? अथवा वायु कभी मेघों से भय खाता है, अमृत को मृत्यु कभी दबोच सकती है और क्या काष्ठ कभी अग्नि को निगल सकता है? अथवा लवण कभी जल को गला सकता है या कालकूट नामक विष किसी अन्य विष के स्पर्श से मर सकता है, किसी मेढक ने कभी किसी महासर्प को निगला है? क्या कभी ऐसी असाधारण बात भी हुई है कि सिंह के साथ सियार लड़ सकता है? इस तरह अघटित होने वाली बात कहीं घटित होते हुए देखी है क्या? परन्तु आज तुमने वही बात यहाँ कर दिखलायी है।

हे भाई अर्जुन! देखो, कहीं तुम्हारा मन इस दीन-हीन भावना का शिकार न हो जाय, इसलिये अब भी तुम अपने चित्त में धीरज को जगह दो और शीघ्रातिशीघ्र सावधान हो जाओ। यह मूढ़ता त्याग दो। धनुष-बाण लेकर उठो। तुम्हारे अन्तःकरण में जो दया इस समय उमड़ी हुई है, वह इस रणभूमि में भला किस काम की? अजी, तुम तो सब कुछ जानते ही हो। फिर तुम भली-भाँति सोच-विचार क्यों नहीं करते? अब तुम्हीं बतलाओ कि जब युद्ध की सारी तैयारियाँ हो चुकी हों, तब यह सदयता दिखाना क्या उचित है? अब तक तुमने जो कुछ यशार्जन किया है, उसका इससे न केवल विनाश ही होगा, अपितु इससे परलोक भी जाता रहेगा।”

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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