ज्ञानेश्वरी पृ. 30

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

इस प्रकार जगन्निवास श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा।[1]

क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ॥3॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने फिर कहा-“हे अर्जुन! तुम शोक मत करो, धीरज धारण करो और अपना यह क्लेश त्याग दो। इस प्रकार का शोक करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। अब तक तुमने जो यशार्जन किया है, इससे उसका विनाश हो जायगा। भाई अर्जुन! अब भी तो तुम अपने कल्याण की बात सोचो। इस संग्राम के समय इस कृपालुता से काम बनने वाला नहीं है। अब भला तुम्हीं बतलाओ कि क्या ये सब लोग इसी समय तुम्हें अपने भाई-बन्धु मालूम होने लगे हैं? क्या तुम्हें इन स्वजनों की जानकारी इसके पहले नहीं थी? क्या तुम्हें अपने वंशजों की पहचान पहले नहीं थी? फिर आज यह व्यर्थ की उछल-कूद क्यों करने लगे? क्या आज का यह युद्ध तुम्हारे लिये कोई नयी चीज है? तुम लोगों का परस्पर का कलह तो आये दिन होता ही रहता है। मैं यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि आज ही तुम्हें क्या हो गया है और तुम्हारे अन्तःकरण में करुणा का आविर्भाव कैसे हुआ। पर हे अर्जुन! निःसन्देह तुमने यह अच्छा नहीं किया। तुम्हारे इस महामोह का यही फल होगा कि अब तक की उपार्जित सारी-की-सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जायगी। इतना ही नहीं, पारलौकिक हित से भी हाथ धो बैठोगे। शूरवीरों को तो युद्धभूमि में अन्तःकरण की दुर्बलता के साथ कोई लगाव ही नहीं रखना चाहिये। इस प्रकार का लगाव रखना तो युद्ध में क्षत्रिय का पतन ही जानना चाहिये।” अर्थात् अन्तःकरण की दुर्बलता से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। वे परम दयालु श्रीकृष्ण इस प्रकार पाण्डु पुत्र अर्जुन को अनेक प्रकार से समझाने-बुझाने लगे। अब आगे यह सुनिये कि भगवान् की इन बातों को सुनकर पाण्डुसुत अर्जुन ने क्या कहा?[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (6-20)
  2. (21-29)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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