ज्ञानेश्वरी पृ. 743

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


प्रवृतिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी ॥30॥

यही कारण है कि इन समस्त कर्मों में वह नित्यकर्म ही सर्वश्रेष्ठ है जो व्यक्ति के अधिकार को सुशोभित करता है और एकमात्र स्वाभाविक क्रम से प्राप्त होता है। एकमात्र आत्मप्राप्ति के फल पर दृष्टि रखकर उन्हीं नित्य कर्मों का ठीक वैसे ही आचरण करना चाहिये जैसे पिपासित व्यक्ति जल पीता है। बस, इतने से वे कर्म जन्मभय का संकट मिटा करके मोक्ष की उपलब्धि कराते हैं। जो व्यक्ति इस प्रकार नित्य कर्मों को करता है, उसका सांसारिक भय बिल्कुल छूट जाता है और कर्म करके वह मुमुक्षुओं का अंश प्राप्त करता है। जिस बुद्धि को यह भरोसा हो जाता है कि ऐसे कर्मों के आचरण में ही मोक्ष रखा हुआ है और इसीलिये जो बुद्धि यह कहती है कि निवृत्ति के आधार पर प्रवृत्ति की रचना करके इन नित्य कर्मों में डुबकी क्यों न लगायी जाय वही बुद्धि सात्त्विक होती है। पिपासित व्यक्ति को जल से जीवन प्राप्त होता है, बाढ़ में फँसने वाले को तैरना पड़ता है, अन्धकूप में गिरे हुए व्यक्ति को सूर्य रश्मियों की सहायता से ही गति मिल सकती है। यदि अच्छी तरह से पथ्य और औषध प्राप्त हो तो रोगग्रस्त मनुष्य भी अच्छा हो जाता है अथवा जिस समय मछली को जल का आश्रय प्राप्त हो जाता है, उस समय उसे जान जाने का भय नहीं रह जाता।

ठीक इसी प्रकार इन नित्य कर्मों का आचरण करने से मोक्ष ही प्राप्त होता है। जो बुद्धि इस विषय में एकदम निर्दोष होती है कि इस प्रकार के करणीय और अकरणीय कर्म कौन-से हैं, उसी बुद्धि को सात्त्विक कहते हैं। संसार का भय उत्पन्न करने वाले जो काम इत्यादि कर्म हैं और जिन पर निषिद्धता की मोहरें लगी हुई हैं, उन निषिद्ध न करने योग्य तथा जीवन-मृत्यु के भय से भरे हुए कर्मों से जो बुद्धि प्रवृत्ति को पिछले पैरों दूर हटाती है, उसी का नाम सात्त्विक बुद्धि है। अग्नि में प्रवेश नहीं किया जाता, अथाह दह में कूदा नहीं जाता और जो तप्त लौह हाथ से पकड़ा नहीं जाता अथवा फुफकारने वाले काले नाग को देखकर उसे हाथ नहीं लगाया जाता तथा व्याघ्र की गुफा में जाया नहीं जाता। ठीक इसी प्रकार न करने योग्य कर्मों को अपने सम्मुख देखकर जो बुद्धि निस्संदेहरूप से अत्यधिक भयग्रस्त होती है, जिस बुद्धि को यह ज्ञान होता है कि जैसे विष मिलाकर पकाये हुए अन्न में मृत्यु रखी ही रहती है, ठीक वैसे ही निषिद्ध कर्म करने से व्यक्ति को बन्धन में अवश्य जकड़ना पड़ता है और फिर बन्धन से भयभीत उन निषिद्ध कर्मों के विषय में जो बुद्धि कर्म-निवृत्ति का प्रयोग करती है और जैसे शुद्ध और अशुद्ध जाँच की जाती है, ठीक वैसे ही कार्य-अकार्य के विचार से जो बुद्धि प्रवृत्ति-निवृत्ति की अच्छी तरह से जाँच करती है और साथ ही जिस बुद्धि के द्वारा कृत्य-अकृत्य का निर्णय भी उत्तम प्रकार से होता है, यह बात तुम अच्छी तरह से समझ लो कि वही बुद्धि सात्त्विक है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (699-717)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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