श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
छल करने वाले कर्मों में जो द्यूत कर्म है, हे विचक्षण, वह मैं ही हूँ। इसीलिये जब कोई व्यक्ति द्यूत कर्म के द्वारा खुल्लमखुल्ला चोरी करता है तो उसका कोई निवारण नहीं कर सकता। समस्त तेजस्वी पदार्थों में जो तेज विद्यमान है, वह मैं हूँ। समस्त कार्य करने के संकल्पों में जो विजय है, वह भी मैं ही हूँ। देवताओं के स्वामी श्रीकृष्ण ने कहा कि समस्त व्यवसायों में न्याय को उज्ज्वल करने वाला व्यवसाय भी मैं ही हूँ। मैं ही सात्त्विक जनों का सत्त्व हूँ। समस्त यादवकुल में जो ऐश्वर्य सम्पन्न वसुदेव और देवकी का पुत्र था, परन्तु जिसे यशोदा जी की पुत्री के बदले में गोकुल में ले गये थे और जिसने पूतना के स्तनपान करने के साथ-ही-साथ उसके प्राणों को भी पी लिया था, जिसने अभी अपनी बाल्यावस्था पार करते-करते ही पूरी सृष्टि को दैत्यों से शून्य कर डाला था और गोवर्धन पर्वत नख के अग्र भाग पर उठाकर महेन्द्र की महिमा की परीक्षा की थी, जिसने कालिन्दी (यमुना) के हृदयरूपी दह में से कालियरूपी शल्य (काँटा) निकाल बाहर किया था, जिसने जलते हुए गोकुल की रक्षा की थी और गौओं के हरण के समय ब्रह्मा को अपनी माया से पागल बना दिया था, जिसने अपनी बाल्यावस्था के श्रीगणेश काल में ही कंस जैसे बड़े-बड़े शूरवीरों को भी धूल में मिला दिया था, पर इतनी बड़ी-बड़ी बातों से क्या लाभ हे अर्जुन! जिसके पराक्रम के कृत्य तुमने स्वयं देखे हैं अथवा सुने हैं, वह श्रीकृष्ण इन सब यादवों में मेरी प्रधान विभूति है। सोमवंशीय पाण्डवों में जो अर्जुन है, उसके विषय में भी तुम यही जान लो कि वह भी मैं ही हूँ और यही कारण है कि उसके तथा मेरे प्रेमभाव में कभी अन्तर नहीं होता और उसके साथ कभी मेरी खटपट नहीं होती। तुम संन्यासी का वेश धारण करके मेरी भगिनी को चुरा ले गये थे; पर फिर भी तुम्हारे प्रति मेरे में कोई विपरीत भावना नहीं जगी; क्योंकि मैं और तुम दोनों एक ही स्वरूप हैं। यादवों के स्वामी श्रीकृष्ण ने आगे और भी कहा कि मैं ही समस्त मुनियों में व्यासदेव और कवीश्वरों में शुक्राचार्य भी हूँ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (284-295)
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