ज्ञानेश्वरी पृ. 325

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-10
विभूति योग


द्यूतं छलयतामस्मितेजस्तजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मिसत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥36॥
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनजय: ।
मुनीनामप्यहं व्यास: कवीनामुशना कवि: ॥37॥

छल करने वाले कर्मों में जो द्यूत कर्म है, हे विचक्षण, वह मैं ही हूँ। इसीलिये जब कोई व्यक्ति द्यूत कर्म के द्वारा खुल्लमखुल्ला चोरी करता है तो उसका कोई निवारण नहीं कर सकता। समस्त तेजस्वी पदार्थों में जो तेज विद्यमान है, वह मैं हूँ। समस्त कार्य करने के संकल्पों में जो विजय है, वह भी मैं ही हूँ। देवताओं के स्वामी श्रीकृष्ण ने कहा कि समस्त व्यवसायों में न्याय को उज्ज्वल करने वाला व्यवसाय भी मैं ही हूँ। मैं ही सात्त्विक जनों का सत्त्व हूँ। समस्त यादवकुल में जो ऐश्वर्य सम्पन्न वसुदेव और देवकी का पुत्र था, परन्तु जिसे यशोदा जी की पुत्री के बदले में गोकुल में ले गये थे और जिसने पूतना के स्तनपान करने के साथ-ही-साथ उसके प्राणों को भी पी लिया था, जिसने अभी अपनी बाल्यावस्था पार करते-करते ही पूरी सृष्टि को दैत्यों से शून्य कर डाला था और गोवर्धन पर्वत नख के अग्र भाग पर उठाकर महेन्द्र की महिमा की परीक्षा की थी, जिसने कालिन्दी (यमुना) के हृदयरूपी दह में से कालियरूपी शल्य (काँटा) निकाल बाहर किया था, जिसने जलते हुए गोकुल की रक्षा की थी और गौओं के हरण के समय ब्रह्मा को अपनी माया से पागल बना दिया था, जिसने अपनी बाल्यावस्था के श्रीगणेश काल में ही कंस जैसे बड़े-बड़े शूरवीरों को भी धूल में मिला दिया था, पर इतनी बड़ी-बड़ी बातों से क्या लाभ हे अर्जुन! जिसके पराक्रम के कृत्य तुमने स्वयं देखे हैं अथवा सुने हैं, वह श्रीकृष्ण इन सब यादवों में मेरी प्रधान विभूति है। सोमवंशीय पाण्डवों में जो अर्जुन है, उसके विषय में भी तुम यही जान लो कि वह भी मैं ही हूँ और यही कारण है कि उसके तथा मेरे प्रेमभाव में कभी अन्तर नहीं होता और उसके साथ कभी मेरी खटपट नहीं होती। तुम संन्यासी का वेश धारण करके मेरी भगिनी को चुरा ले गये थे; पर फिर भी तुम्हारे प्रति मेरे में कोई विपरीत भावना नहीं जगी; क्योंकि मैं और तुम दोनों एक ही स्वरूप हैं। यादवों के स्वामी श्रीकृष्ण ने आगे और भी कहा कि मैं ही समस्त मुनियों में व्यासदेव और कवीश्वरों में शुक्राचार्य भी हूँ।[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (284-295)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः