श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
मैं ही सारे जीवों की रचना करता हूँ, मैं ही उन जीवों की रक्षा करता हूँ और मैं ही उनका नाश भी करता हूँ; इसलिये मृत्यु भी मेरी ही विभूति है। अब स्त्री-समुदाय में मेरी सात विभूतियाँ हैं; वह भी मैं तुम्हें यों ही बतला देता हूँ। हे अर्जुन, नित्य नूतन जो कीर्ति है, वह भी मेरी विभूति है और उदारता का साथ जिसे मिला हुआ है, वह सम्पत्ति भी मुझे ही जानो। न्याय के सुखासन पर चढ़कर विवेक के मार्ग पर जो वाचा (वाणी) चलती रहती है, वह वाचा भी मैं ही हूँ। दृष्टिगत होने वाली वस्तु साथ-ही-साथ उसके सम्बन्ध की सब बातों को याद दिलाने वाली स्मृति भी मैं ही हूँ। इसी प्रकार आत्महित का साधन करने वाली जो बुद्धि है, वह भी मैं ही हूँ। मैं ही धैर्य की वृत्ति और सर्वत्र दृष्टिगोचर होने वाली क्षमा भी हूँ। इस प्रकार स्त्री-समुदाय में ये सातों शक्तियाँ भी मैं ही हूँ।” संसाररूपी हाथी का विनाश करने वाले सिंह श्रीकृष्ण ने ये समस्त बातें उस समय अर्जुन से कहीं।[1]
इसके बाद रमापति श्रीकृष्ण ने कहा-“हे प्रियोत्तम! वेदत्रयी के सामवेद में जो बृहत् साम है, वह भी मैं ही हूँ। इस विषय में तुम्हें जरासा भी सन्देह नहीं होना चाहिये कि समस्त छन्दों में जिसे गायत्री छन्द कहते हैं, वह मेरा ही स्वरूप है। शांर्गधर ने कहा कि द्वादश मासों में मार्गशीर्ष और षड्-ऋतुओं में कुसुमाकर वसन्त-ऋतु भी मैं ही हूँ।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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