ज्ञानेश्वरी पृ. 324

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


मृत्यु : सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्ति: श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृति: क्षमा ॥34॥

मैं ही सारे जीवों की रचना करता हूँ, मैं ही उन जीवों की रक्षा करता हूँ और मैं ही उनका नाश भी करता हूँ; इसलिये मृत्यु भी मेरी ही विभूति है। अब स्त्री-समुदाय में मेरी सात विभूतियाँ हैं; वह भी मैं तुम्हें यों ही बतला देता हूँ।

हे अर्जुन, नित्य नूतन जो कीर्ति है, वह भी मेरी विभूति है और उदारता का साथ जिसे मिला हुआ है, वह सम्पत्ति भी मुझे ही जानो। न्याय के सुखासन पर चढ़कर विवेक के मार्ग पर जो वाचा (वाणी) चलती रहती है, वह वाचा भी मैं ही हूँ। दृष्टिगत होने वाली वस्तु साथ-ही-साथ उसके सम्बन्ध की सब बातों को याद दिलाने वाली स्मृति भी मैं ही हूँ। इसी प्रकार आत्महित का साधन करने वाली जो बुद्धि है, वह भी मैं ही हूँ। मैं ही धैर्य की वृत्ति और सर्वत्र दृष्टिगोचर होने वाली क्षमा भी हूँ। इस प्रकार स्त्री-समुदाय में ये सातों शक्तियाँ भी मैं ही हूँ।” संसाररूपी हाथी का विनाश करने वाले सिंह श्रीकृष्ण ने ये समस्त बातें उस समय अर्जुन से कहीं।[1]


बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर: ॥35।

इसके बाद रमापति श्रीकृष्ण ने कहा-“हे प्रियोत्तम! वेदत्रयी के सामवेद में जो बृहत् साम है, वह भी मैं ही हूँ। इस विषय में तुम्हें जरासा भी सन्देह नहीं होना चाहिये कि समस्त छन्दों में जिसे गायत्री छन्द कहते हैं, वह मेरा ही स्वरूप है। शांर्गधर ने कहा कि द्वादश मासों में मार्गशीर्ष और षड्-ऋतुओं में कुसुमाकर वसन्त-ऋतु भी मैं ही हूँ।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (274-280)
  2. (281-283)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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