गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 138

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

अठारहवाँ अध्याय

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कर्मों को करने में राग न हो और छोड़ने में द्वेष न हो- इतनी झंझट करें ही क्यों? कर्मों का सर्वथा त्याग ही कर दें, तो?
देहधारी मनुष्य के द्वारा कर्मों का स्वरूप से सर्वथा त्याग हो ही नहीं सकता। इसलिये जो कर्मों के फल का त्याग करने वाला है, वही त्यागी कहलाता है।।11।।

कर्मफल कितने तरह का होता है भगवन्?
कर्मफल तीन तरह का होता है- अनुकूल परिस्थिति का आना इष्ट है, प्रतिकूल परिस्थिति का आना अनिष्ट है तथा- जिसमें कुछ भाग इष्ट का और कुछ भाग अनिष्ट का होता है, वह मिश्र है। ये तीनों तरह के कर्मफल फल की इच्छा रखकर कर्म करने वालों को मरने के बाद भी होते हैं; परन्तु फलेच्छा का त्याग करने वालों को कहीं भी नहीं होते।

जिस कर्म का फल तीन तरह का होता है, उस कर्म के होने में कौन हेतु बनता है?
हे महाबाहो! कर्मों का अन्त करने वाले सांख्य-सिद्धान्त में सम्पूर्ण कर्मों के सिद्ध होने में पाँच हेतु बताये हैं, इनको तू मेरे से समझ।।12-13।।

शरीर, कर्ता, तरह-तरह के करण और उनकी विविध प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ तथा संस्कार- ये पाँच हेतु हैं। मनुष्य शरीर, वाणी और मन के द्वारा शास्त्रविहित अथवा शास्त्रनिषिद्ध जो कुछ भी कर्म आरम्भ करता है, उसके ये पाँचों हेतु होते हैं।।14-15।।

कर्मों के होने में ये पाँच हेतु बताने का क्या तात्पर्य है?
कर्म तो शरीर, वाणी और मन से ही होते हैं, आत्मा में कर्तापन नहीं है। परन्तु जो कर्मों के विषय में आत्मा को कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है।।16।।

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