बस, इतने ही कर्म करने हैं क्या?
हे पार्थ! अभी कहे हुए यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा इनके सिवाय दूसरे भी शास्त्रविहित कर्मों को आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके चाहिये- यही मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है।।6।।
जो तीन तरह का त्याग कहा गया है, उसका क्या स्वरूप है भगवन्?
नियत कर्मों का त्याग करना किसी के लिये भी उचित नहीं है[1]। मोह के कारण इनका त्याग करना तामस त्याग है।।7।।
राजस त्याग का क्या स्वरूप है?
कर्तव्यकर्म करने में दुःख ही है- ऐसा समझकर शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग करना राजसत्याग है। ऐसा त्याग करने वाले को त्याग का फल-शान्ति नहीं मिलती।।8।।
सात्त्विक त्याग का क्या स्वरूप है?
हे अर्जुन! नियत कर्म करना मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है- ऐसा समझकर कर्मों की आसक्ति और फल की इच्छा का त्याग करके नियत कर्मों को करना सात्त्विक त्याग है।।9।।
त्याग करने वाला मनुष्य कैसा होता है भगवन्?
वह सकाम और निषिद्ध कर्मों का त्याग तो करता है, पर द्वेषपूर्वक नहीं और शास्त्र-नियत कर्तव्य-कर्मों का आचरण तो करता है? पर रागपूर्वक नहीं। ऐसा बुद्धिमान् त्यागी मनुष्य सन्देहरहित होकर अपने स्वरूप में स्थित रहता है।।10।।
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