गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द20.समत्व और ज्ञान
परंतु फिर भी निम्नतर ज्ञान में संदेह और अविश्वास होने का एक तात्कालिक उपयोग है; किंतु उच्चतर ज्ञान में ये रास्ते के रोड़े हैं, क्योंकि वहाँ का सारा रहस्य बौद्धिक भूमिका की तरह सत्य और भ्रांति का संतलुन करना नहीं है, वहाँ तो स्वतःप्रकाशमान सत्य की सतत-प्रगतिशील अनुभूति होती रहती है और इसलिये संदेह और अविश्वास का कोई स्थान नहीं है। बौद्धिक ज्ञान में सदा ही असत्य अथवा अपूर्णत्व का मिश्रण रहता है जिसे हटाने के लिये स्वयं सत्य की संशयात्मक छानबीन करनी पड़ती है; परंतु उच्चतर ज्ञान में असत्य नहीं घुस सकता और इस या उस मत पर आग्रह करके बुद्धि जो भ्रम ले आती है वह केवल तर्क के द्वारा दूर नहीं होता, पर वहाँ की अनुभूति में लगे रहने से वह अपने-आप दूर हो जाता है। जो ज्ञान प्राप्त हो चुका है उसमें जो कुछ अपूर्णता रह गयी हो उसे अवश्य दूर करना होगा, किंतु यह काम जो कुछ अनुभूति हो चुकी है उसके मूल पर संदेह करने से नहीं बल्कि अपने जीवन को आत्मा की अधिक गहराई, ऊचांई और विशालता में ले जाकर अब तक की प्राप्त अनुभूति से आगे की और भी पूर्णतर अनुभूति की ओर बढ़ने के द्वारा होगा। और जो कुछ अभी अनुभूत नहीं है उसके लिये श्रद्धा के हथियार से भूमि तैयार करनी होगी, यहाँ तर्क और शंका का काम नहीं; क्योंकि यह वह सत्य है जिसे बुद्धि नहीं दे सकती, तार्किक और यौक्तिक मन जिन विचारों में उलझा रहता है यह बहुधा उनसे विपरीत होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.40
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