गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द20.समत्व और ज्ञान
हमें वहाँ जो उच्चतर ज्ञान प्राप्त होता है वह ब्रह्मवित् पुरुष के लिये पदार्थ-मात्र को देखने की वह स्थायी दृष्टि है जो उसे ब्रह्म में निर्बाध रूप से स्थित होने पर प्राप्त होती है, यह सब का बहिष्कार कर केवल ब्रह्म का दर्शन, या चेतना या ज्ञान नहीं है, बल्कि सब कुछ को ब्रह्म में आत्मवत् देखना है। यहाँ कहा गया है। कि जिस ज्ञान के द्वारा हम लोग उस स्थिति में पहुँचते हैं जहाँ से फिर इस मानसिक प्रकृति के मोहजाल में लौटना नहीं होता, वही वह ज्ञान है ‘‘जिसे तू सर्वभूतों को अशेष रूप से आत्मा के अंदर और फिर मेरे अंदर देखेगा।”[1]इसी बात को गीता ने अन्यत्र और भी अधिक विस्तृत रूप से इस प्रकार कहा है कि, ‘‘सर्वत्र समदर्शी पुरुष सब भूतों में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में सब भूतों को देखता है। जो कोई मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मेरे अंदर देखता है वह कभी मुझे नहीं खोता, न मैं उसे खोता हूँ। जो एकत्व को प्राप्त योगी सब भूतों में स्थित मुझको भजता है वह चाहे जैसे रहे या करे पर मेरे ही अंदर रहता और कर्म करता है। हे अर्जुन! जो कोई सुख में, दुःख में, सर्वत्र, सबको अपनी ही तरह समान रूप से देखता है उसीको मैं परम योगी मानता हूँ।”[2] यही उपनिषद् का पुरातन वैदांतिक ज्ञान है जिसे गीता सतत हम लोगों के सामने रखती है; परंतु वेदांत-ज्ञान के जो निरूपण पीछे हुए उनकी अपेक्षा गीता की श्रेष्ठता इस विषय में यही है कि गीता ने इस ज्ञान को दिव्य जीवन का एक महान् व्यवहार-शास्त्र बना दिया है। इस एकत्व-ज्ञान और कर्मयोग के परस्पर-संबंध के विषय में गीता का विशेष आग्रह है और इसीलिये जगत् में मुक्त कम के आधार के रूप में एकत्व के ज्ञान पर जोर दिया गया है। जहां-जहाँ गीता ज्ञान की बात कहती है वहीं-वहीं ज्ञान की बात भी कहती है, जो ज्ञान का फल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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