गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द20.समत्व और ज्ञान
भौतिक विज्ञान को हम यौगिक ज्ञान तब बना सकते हैं जब हम उसकी प्रक्रियाओं और घटनाओं के पर्दे को भेद कर उस एकमात्र स्द्वस्तु को देख लें जिससे सब बातें स्पष्ट हो जाती हैं, मनोवैज्ञानकि विद्या को यौगिक ज्ञान तब बनाया जा सकता है। जब हम उससे अपने-आपको जानने और निम्न-उच्च का विवेक करने का काम ले सकें जिससे कि निम्न अवस्था को छोड़ हम उच्च अवस्था में सवंर्द्धित हो सकें; दार्शनिक विद्या को हम यौगिक ज्ञान तब बना सकते है जब हम इससे पाप और पुण्य के भेद को जनान जायें, पाप को दूर कर और पुण्य से ऊपर उठकर दिव्य प्रकृति की निर्मलता में पहुँच जायें; रसविद्या को हम यौगिक ज्ञान तब बना सकते हैं जब हम इसके द्वारा भगवान् के सौन्दर्य को पा लें; जागतिक और व्यावहारिक विद्या को हम यौगिक तब बना सकते हैं जब हम उसके भीतर से यह देख पावें कि ईश्वर अपनी सृष्टि के साथ कैसा व्यवहार करते हैं और फिर उस ज्ञान का उपयोग मनुष्य में रहने वाले भगवान् की सेवा के लिये करें। परंतु तभी ये विद्याएं सच्चे ज्ञान की सहायक भर होती हैं; वास्तविक ज्ञान तो वही है जो मन के लिये अगोचर है, मन जिसका आभासमात्र पाता है। सच्चा ज्ञान तो आत्मा में ही होता है। यह ज्ञान कैसे प्राप्त होता है इसका वर्णन करते हुए गीता कहती है कि पहले इस ज्ञान की तत्त्वदर्शी ज्ञानियों से दीक्षा लेनी होती है, उनसे नहीं जो तत्त्वज्ञान को केवल बुद्धि से जानते हैं बल्कि उन ज्ञानियों से जिन्होंने इसके मूल सत्य को प्रत्यक्ष देखा है, ज्ञानिन: तत्त्वदर्शिन:; परंतु वास्तविक ज्ञान तो हमें अपने अंदर से मिलता है, ‘‘योग के द्वारा संसिद्धि को प्राप्त मनुष्य उसको अपने-आप ही यथासमय अपनी आत्मा में पता है,”[1]अर्थात् यह ज्ञान उस मनुष्य में सवंर्द्धित होता रहता है और ज्यों-ज्यों वह मनुष्य निष्कामता, समता और भगवद्भक्ति में बढ़ता जाता है त्यों-त्यों ज्ञान में भी बढ़ता जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.38
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज