गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
गीता अर्जुन के क्षात स्वभाव का आवाहन करके इसे वीरोचित साधना से अपना उपदेश आरंभ करती है। गीता अर्जुन का आवाहन करती है कि तुम इस महाशत्रु कामना पर टूट पड़ो और इसे मार डालो। गीता ने समत्व का जो पहला वर्णन किया है वह स्टोइक दार्शनिक के वर्ण के जैसा ही है। ‘‘दुःखों के बीच जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुखों के बीच उनकी इच्छा नहीं होती, राग, भय, क्रोध जिससे निकल गये वही स्थितधी मुनि है। जो, चाहे उसे शुभ प्राप्त हो या अशुभ, सभी विषयों में स्नेहशून्य रहता है, न उनका हर्षपूर्ण स्वागत करता न उससे द्वेष करता है उसीकी बुद्धि ज्ञान में स्थित है।”[1] गीता ने एक स्थूल दृष्टांत देकर समझाया है कि यदि मनुष्य आहार न करे तो यह इनिद्रय-विषय उस पर असर न करेगा, पर इन्द्रिय में ‘रस‘ तो रहेगा ही; आत्मा की परम स्थिति तो तब प्राप्त हेती है जब इन्द्रिय से विषय ग्रहण करते हुए भी वह इन्द्रियभोग की लालसा से मुक्त रह सके, विषयों के मोह को छोड़ सके और आस्वादन के सुख का त्याग कर सके। राग-द्वेष से मुक्त, आत्मवशीकृत ज्ञानेंद्रियों के द्वारा विषयों के ऊपर विचरण करते हुए ही मनुष्य आत्मा और स्वभाव की उदार और मधुर पिवत्रता को प्राप्त कर सकता है, जिसमें काम, क्रोध और शोक-मोह के लिये काई स्थान नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.56-57
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