गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
जरा, मुत्यु, दुःख यंत्रणा से भागने की जरूरत नहीं है, प्रत्युत इन्हें स्वीकार करके उदासीनता से परास्त करना है। [2] प्रकृति के निम्नस्तरीण छभ्दारूपों से भीत होकर भागना नहीं, बल्कि ऐसी प्रकृति का सामना करके उसे जीतना ही पुरुषसिंह की तेजस्विनी प्रकृति का सच्चा सहज भाव है। ऐसे पुरुष से विवश होकर प्रकृति अपना छभ्दवेश उतार फेंकती है और उसे असली आत्मस्वरूप दिखा देती है, जिस स्वरूप में वह प्रकृति का दास नहीं, बल्कि उसका स्वराट् सम्राट् है।परंतु गीता इस स्टोइक साधना को, इस वीरधर्म को उसी शर्त पर स्वीकार करती है जिस शर्त पर वह तामसिक निवृत्ति को स्वीकार करती है, अर्थात् इसके ऊपर ज्ञान की सात्त्विक दृष्टि, इसके मूल में आत्मसाक्षात्कार का लक्ष्य और इसकी चाल में, दिव्य स्वभाव की ओर उध्र्वागति होनी चाहिये। जिस स्टोइक साधना के द्वारा मानव-स्वभाव के सामान्य स्नेहभाव कुचल डाले जाते हैं वह जीवन के प्रति तामसिक क्लांति, निष्फल नैराश्य और ऊसर जड़त्व की अपेक्षा तो कम खतरनाक है, क्योंकि यह जीव के पौरूष और आत्म-वशित्व को बढ़़ाने वाली है, फिर भी यह अमिश्र शुभ नहीं है, क्योंकि इससे सच्ची आध्यात्मिक मुक्ति नहीं मिलती, बल्कि इससे हृदयहीनता और निष्ठुर ऐकांतिकता आ सकती है। गीता की साधना में स्टोइक समता का जो समर्थन मिलता है वह इसीलिये है कि यह साधना क्षर मानव-प्राणी को मुक्त अक्षर पुरुष का साक्षात्कार करने में, और इस नवीन आत्मचेतना को प्राप्त करने में, साथ और सहायता दे सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.23
- ↑ गीता का कथन है,धीरस्त्र न मुह्य्ति अर्थात धीर बुद्धिमान पुरुष उनसे घबराता नहीं परंतु फिर भी इन्हें जो स्वीकार करता है वह इन्हें जीतने के लिये ही करता है-जरामरणमोक्षाय।
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