गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
वह इन तीनों की जड़ को अधिक गहराई में जमाती, प्रत्येक का लय अधिक व्यापक बनाती और प्रत्येक में सर्वव्यापक और सर्वातीत परम अर्थ भर देती है। कारण गीता इनमें से प्रत्येक को इनका आध्यात्मिक मूल्य और इनकी आध्यात्मिक सत्ता की शक्ति देती है, जो चरित्रबलसाधन के आयास, बुद्धि की कठिन समस्थिति और भावावेगों के झोंके से परे की चीज है। सामान्य मानव को प्राकृत जीवन के चिर-अभ्यस्त विक्षोभों से एक तरह का सुख मिलता है; और चूंकि उसे उनमें सुख मिलता है और इस सुख से सुखी होकर वह निम्न प्रकृति की अशांत क्रीड़ा को अपनी अनुमति देता है इसलिये त्रिगुणत्मिका प्रकृति की यह क्रीड़ा सदा चलती रहती है; कारण प्रकृति जो कुछ करती है वह अपने प्रेमी और भोक्ता पुरुष के सुख के लिये और उसीकी अनुमति से करती है। परंतु इस सत्य को हम नहीं पहचान पाते, क्योंकि जब प्रतिकूल विक्षोभ का प्रत्यक्ष आघात होता है, शोक, क्लेश, असुविधा, दुर्भाग्य विफलता, पराजय, निंदा, अपमान के आघात से मन पीछे की ओर हटता है, और इसके विपरीत जब अनुकूल और सुखद उत्तेजना होती है जेसे हर्ष, सुख, हर प्रकार की तुष्टि, समृद्धि, सफलता, जय, गौरव, प्रशंसा आदि, तो मन उन्हें लगाने के लिये उछल पड़ता है; पर इससे सत्य में कोइ अंतर नहीं पड़ता कि जीव जीवन में सुख लेता है और यह सुख मन के द्वन्दों के पीछे सदा वर्तमान रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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