गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
वहाँ प्रकृति के गुणों की विषम क्रीड़ा प्रत्यक्ष है, वहाँ कामना का वेग है, व्यक्तिगत इच्छा, भाव या कर्म का खेल है, सुख-दुःख की द्वन्द्वात्मक गति है या वह उद्विग्न या उद्वेगजनक आनंद है जो सच्चा आध्यात्मिक आनंद नहीं, बल्कि एक प्रकार की मानसिक तृप्ति है जिसके साथ अनिवार्य रूप से मानसिक अतृप्ति का प्रतिक्षेप या प्रतिरूप भी लगा रहता है। जीव में जहाँ कहीं विषमता है वहाँ ज्ञान से स्खलन है, सर्वसमाहारक और सर्वसमन्वयकारक ब्रह्मोक्य में और सचराचर जगत् के एकत्व में सुप्रतिष्ठ रहने का अभाव है। इस समत्व के द्वारा ही कर्मयोगी को कर्म करते समय भी यह ज्ञान रहता है कि वह मुक्त है। गीता ने जिस समत्व का विधान किया है उसका स्वरूप है आध्यात्मिक, वह अपने स्वभाव और व्यापकता में उच्च और विश्वव्यापी है और यही इस विषय में गीता के उपदेश की विशेषता है। नहीं तो समत्व का उपदेश मात्र देकर यह कहना कि ‘यह मन, अनुभव और स्वभाव की एक अत्यंत वांछनीय अवस्था है जिसमें पहुँचकर हम मानव-दुर्बलता के ऊपर उठ जाते हैं, ’गीता की अनूठी विशेषता नहीं है। ऐसा समत्व तो दार्शनिक आदर्श और साधु-महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है। गीता इस दार्शनिक आदर्श और साधु-महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है। गीता इस दार्शनिक आदर्श को स्वीकार अवश्य करती है पर उसे बहुत दूर ऐसे उच्च प्रदेशों में ले जाती है जहाँ हम अपने-आपको अधिक विशाल और विशुद्ध वातावरण में सांस लेते हुए पाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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