गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
जीवन के अनुकूल स्पर्शों से मन को हर्ष होता है, यह प्रकृति का राजस भोग देकर प्रलोभन देना है, जिससे जीव की शक्ति जड़ता और अकर्मण्यता की तामसी प्रवृत्तियों को जीत सके और वह कर्म, कामना, संघर्ष और सफलता के लिये पूर्ण रूप से लग जायें और मन को इनके साथ आसक्त करके प्रकृति अपना प्रयोजन सिद्ध कर सके। हमारी गूढ़ आत्मा इस द्वन्द्व और संघर्ष में एक प्रकार का सुख अनुभव करती है, यह सुख उसे विषाद और दुःख में भी मिलता है। अतीत विपद् को याद करने और पीछे फिरकर देखने में तो उसे पूरा सुख मिलता ही है, पर जिस समय विपद् सिर पर हो उस समय भी वह आत्मा परदे के पीछे सुख लेती रहती है और प्रायः दुःखी मन के स्तर पर आकर भी उसके आवेश में सहारा देती है। परंतु जो चीज आत्मा को सचमुच आकर्षित करती है वह इस संसार का नानाविध द्वन्द्वों से भरा हुआ यह पदार्थ है जिसे हम जीवन कहते हैं, जो संघर्ष और कामना के विक्षोभ से, आकर्षण और विकर्षण से, लाभ और हानि से, हर प्रकार के वैचित्रय से भरा है। हमारे राजसिक कामनामय पुरुष को एकरस सुख, संघर्षरहित सफलता और आवरणरहित हर्ष कुछ काल बाद अवसादकर, नीरस, और अतृप्तिकर-सा लगने लगता है; प्रकाश का पूरा सुख भोगने के लिये इसे अंधकर की पृष्ठभूमि चाहिये; क्योंकि वह जो सुख चाहता और भोगता है वह ठीक उसी स्वभाव का, तत्त्वतः सापेक्ष होता है जो अपने विपरीत तत्त्व की प्रतीति और अनुभूति पर निर्भर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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