विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 13श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसारनिशम्य गीतं तदनवंगवर्द्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः । ‘निशम्य गीतं तदन्वंगवर्द्धनम्’- श्यामसुन्दर की बाँसुरी बजी। जैसे कोई तत्त्ववित् महात्मा तत्त्व का उपेदश करने के लिए उन्मुख हो और उसकी ध्वनि सुन करके जिज्ञासु लोग दौड़ आवें, वैसे ईश्वर अपने भक्तजनों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए इस वंशीध्वनि का प्रयोग करता है। एक बात आपको सुनावें- वंशीध्वनि और वेदध्वनि। शास्त्र में लिखा है कि जब ईश्वर प्रलय के समय सो जाता है तब उसके नाक की जो घर्घराहट है वह वेद ध्वनि है। कहा- उसमें अर्थ कहाँ से आया? अरे भाई! ईश्वर के नाक की घर्घराहट भी अर्थरूप होती है। कहा- नहीं, नहीं अपने भाव के अनुसार महात्मा लोग उस ध्वनि में से संकेत निकाल लेते हैं- ‘निःश्वसितमस्यवेदाः। अस्य महतोभूतस्य निःश्वसितमेतद्-यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वांगिरस इतिहासः पुराणम्।’ और वंशीध्वनि? यह तो जाग्रत अवस्था में जान-बूझकर कि लोग हमारी ओर सम्मोहित हों, आकृष्ट हों, जीवों को अपनी ओर खींचने के लिए ईश्वर का मधुर-मधुर आनन्द से ओत-प्रोत हृदयाकर्षण रूप बुलावा है आओ-आओ, आनन्द रस का पान करो, आनन्द-रस में स्नान करो, आनन्द रस के समुद्र में अवगाहन करो। यह वेणुध्वनि क्या है? वेद में एक मंत्र आता है- सोम का वर्णन है उसमें। सोम माने चंद्रमा भी होता है और, सोम माने वह सोम-रस भी होता है जिसका विद्वान् लोग पान करते थे और सोम माने सूर्य भी होता है और सोम माने आत्मा भी होता है। निरुक्तकार ने वहाँ सोम शब्द का अर्थ किया है- एक सूर्य और एक भी होता है। निरुक्तकार ने वहाँ सोम शब्द का दो अर्थ किया है- एक सूर्य और एक आत्मा। मंत्र है- ‘सोमः पवते जनिता मतीनां।’ प्रकाशात्मक किरणों को उत्पन्न करने वाला जैसे सूर्य है, वैसे प्रकाशात्मक, वृत्तियों को प्रकट करने वाला आत्मा है; वही इन्द्रियों का जनयिता है, इन्द्रियों का सविता है, वही पृथ्वी का सविता है, वही अग्नि का सविता है, वही इन्द्र का सविता है और वही विष्णु का सविता है; इतनी बात उस मंत्र में कही गयी है। विष्णु नाम में है- ‘इन्द्रस्याथ विष्णोः जनिता।’ सोम माने आत्मा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भाग. 10.29.4
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