उस ज्ञेय-तत्त्व का स्वरूप क्या है?
वह आदि-अन्त से रहित और परम ब्रह्म है। वह न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है।[1]।।12।।
तो भी वह कैसा है भगवन्?
वह सब जगह ही हाथों और पैरों वाला, सब जगह ही नेत्रों, सिरों और मुखों वाला तथा सब जगह ही कानों वाला है। वह सभी को व्याप्त करके स्थित है। वह सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित है और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करने वाला है। वह आसक्ति-रहित है और सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाला है। वह गुणों से रहित है और गुणों का भोक्ता है।।13-14।।
एक ही तत्त्व में दो विरोधी लक्षण कैसे हुए?
अनेक विरोधी भाव उस एक में ही समा जाते हैं और विरोध उसमें रहता नहीं; क्योंकि स्थावर-जंगम आदि सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर भी वही है और भीतर भी वहीं है तथा चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वही है अर्थात् उसके सिवाय दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं। दूर-से-दूर भी वही है और जो नजदीक-से-नजदीक भी वही है।[2]।15।।
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