उसमें विरोध न होने का और कारण क्या है भगवन्?
वह परमात्मा विभागरहित होता हुआ भी अनेक विभाग वाले प्राणियों (वस्तुओं) में विभक्त की तरह स्थित है। वह परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला, उनका भरण-पोषण करने वाला और संहार करने वाला है अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय-रूप भी वही है। उस परमात्मा को जानना चाहिये।।16।।
उसका स्वरूप क्या है?
इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि के द्वारा जितने ज्ञान होते हैं, वे सभी उसी से प्रकाशित होते हैं। इसलिये वह सम्पूर्ण ज्योतियों (ज्ञानों) का भी ज्योति (प्रकाशक) है। उसमें अज्ञान का अत्यन्त अभाव है। वह ज्ञानस्वरूप है। जाननेयोग्य भी वही है। वह ज्ञान (साधन-समुदाय) से प्राप्त करने योग्य है। वह सबके हृदय में विराजमान है।[1]।।17।।
और किस-किस को जानना है और जानने का क्या माहात्मय है भगवन्?
क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय-इन तीनों को जानना है, जिनका वर्णन मैंने संक्षेप से कर दिया है। इन तीनों को ठीक-ठीक जानने वाला मेरा भक्त मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है अर्थात् उसको मेरे साथ अभिन्नता का अनुभव हो जाता है।।18।।
भक्त तो क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय-इन तीनों को जानकर आपसे अभिन्नता का अनुभव कर लेता है, पर जो साधक केवल ज्ञानमार्ग पर ही चलना चाहता है, उसके लिये क्या जानना आवश्यक है?
उसके लिये प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ)-इन दोनों को अलग-अलग जानना आवश्यक है। प्रकृति और पुरुष- ये दोनों ही अनादि हैं।
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