- महाभारत शान्ति पर्व के मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 284 में दक्ष द्वारा किये हुए शिवसहस्रनामस्तोत्र से संतुष्ट होकर महादेव जी का दक्ष को वरदान देने का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
दक्ष को शिव द्वारा वरदान देना
दक्ष के पूछने पर वीरभद्र ने कहा- ब्रह्मन! मैं न तो रुद्र हूँ, न देवी हूँ और न यहाँ भोजन करने के लिये ही आया हूँ। तुम्हारा यह यज्ञ देवी पार्वती के रोष का कारण बन गया है- ऐसा जानकर सर्वात्मा भगवान शिव कुपित हो उठे हैं। मैं यहाँ आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों का दर्शन करने या कौतूहलवश इस यज्ञ का तमाशा देखने के लिये नहीं आया हूँ। तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि मैं तुम्हारे इस यज्ञ का विनाश करने के लिये ही यहाँ आया हूँ। मेरा नाम वीरभद्र है। रुद्रदेव के क्रोध से मेरा प्राकट्य हुआ है।
यह नारी भद्रकाली के नाम से विख्यात है और देवी पार्वती के कोप से प्रकट हुई है। देवाधिदेव महादेव ने हम दोनों को यहाँ भेजा है। इसलिये हम दोनों इस यज्ञ के निकट आये हैं। विप्रवर! तुम देवाधिदेव उमावल्लभ भगवान शिव की शरण में जाओ। महादेव जी का क्रोध भी परममंगलमय है और दूसरों से मिला हुआ वरदान भी मंगलकारक नहीं होता। वीरभद्र की बात सुनकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ दक्ष ने भगवान शिव के उद्देश्य से प्रणाम करके निम्नांकित स्तोत्र के द्वारा उनकी स्तुति की- 'जो सम्पूर्ण जगत के शासक, पालक, महान आत्मा, नित्य, सनातन, अविकारी और आराध्यदेव हैं, उन महादेव जी की आज मैं शरण लेता हूँ।' तब अनेक नेत्रों वाले, शत्रुविजयी, महादेव अपने मुखों द्वारा यत्नपूर्वक प्राण और अपान वायु को अवरुद्ध करके सम्पूर्ण दिशाओं में दृष्टिपात करते हुए सहसा अग्निकुण्ड से निकल पड़े। प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी स्वरूप से सहस्रों सूर्यों की प्रभा धारण किये वे दक्ष के सामने खड़े हो गये और मुस्कराकर बोले- 'प्रजापते! बोलो, मैं आज तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ।'[1]
उस समय देवगुरु बृहस्पति ने महादेव जी को वेद का मखाध्याय पढ़कर सुनाया। तत्पश्चात् प्रजापति दक्ष दोनों नेत्रों से आँसुओं की धारा बहाते हुए हाथ जोड़कर भय और शंका से सहमे हुए बोले- 'भगवन! यदि मैं आपका प्रिय हूँ, आपके अनुग्रह का पात्र हूँ अथवा यदि आप मुझे वर देने में उद्यत हैं तो मैं यही वर माँगता हूँ कि मैंने दीर्घ काल से महान प्रयत्न करके जो ऐसा यज्ञ सम्भार जुटा रखा था, उसमें से जो जला दिया गया, खा-पी लिया गया, नष्ट किया गया अथवा चूर-चूर करके फेंक दिया गया, वह सब मेरे लिये व्यर्थ न हो’। तब धर्म के अध्यक्ष, प्रजापालक, विरूपाक्ष, त्रिनेत्रधारी, भगनेत्रधारी देवेश्वर भगवान हर ने ’तथास्तु’ कहकर दक्ष को मनोवांछित वर दे दिया। महादेव जी से वर पाकर दक्ष ने धरती पर घुटने टेककर उन्हें प्रणाम किया और एक हजार नामों द्वारा उन भगवान वृषभध्वज का स्तवन किया।[2]
दक्ष का भगवान शिव की शिवसहस्रनामस्तोत्र द्वारा स्तुति
युधिष्ठिर ने पूछा- तात! निष्पाप पितामह! प्रजापति दक्ष ने महादेव जी की स्तुति की थी, उनका मुझसे वर्णन कीजिये। उन्हें सुनने के लिये मेरे हृदय में बड़ी श्रद्धा है। भीष्म जी कहते हैं- भरतनन्दन! अद्भुत कर्म करने वाले गूढ़व्रतधारी देवाधिदेव महादेव जी के कुछ गोपनीय नाम हैं और कुछ प्रकाशित हैं। तुम उन सबको सुनो।
(दक्ष बोले)- देव देवेश्वर! आपको नमस्कार है। आप देव वैरी दानवों की सेना के संहारक और देवराज इन्द्र की शक्ति को भी स्तम्भित करने वाले हैं। देवता और दानव-सब ने आपकी पूजा की है। आप सहस्रों नेत्रों से युक्त होने के कारण सहस्राक्ष हैं। आपकी इन्द्रियाँ सबसे विलक्षण अर्थात् परोक्ष विषय को भी प्रत्यक्ष करने वाली हैं, इसलिये आपको विरूपाक्ष कहते हैं। आप त्रिनेत्रधारी होने के कारण त्र्यक्ष कहलाते हैं। यक्षराज कुबेर के भी आप प्रिय (इष्टदेव) हैं। आपके सब ओर हाथ और पैर हैं तथा सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं। आपके कान भी सब ओर हैं। संसार में जो कुछ है, सबको व्याप्त करके आप स्थित हैं। शंकुकर्ण, महाकर्ण, कुम्भकर्ण, अर्णवालय, गजेन्द्रकर्ण, गोकर्ण और पाणिकर्ण- ये सात पार्षद आपके ही स्वरूप हैं। इन सबके रूप में आपको नमस्कार है। आपके सैकड़ों उदर, सैकड़ों आवर्त और सैकड़ों जिह्वाएँ होने के कारण आप क्रमशः शतोदर, शतावर्त और शतजिह्व नाम से प्रसिद्ध हैं। आपको प्रणाम हैं। गायत्री मन्त्र का जप करने वाले द्विज आपकी ही महिमा का गान करते हैं और सूर्योपासक सूर्य के रूप में आपकी ही ब्रह्मा, शतक्रतु इन्द्र और आकाश के समान सर्वोच्च पद मानते हैं। समुद्र और आकाश के समान अपार, अनन्त रूप धारण करने वाले महामूर्तिधारी महेश्वर! जैसे गोशाला में गौएँ निवास करती हैं, उसी प्रकार आपकी भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा एवं यजमानरूप आठ प्रकार की मूर्तियों में सम्पूर्ण देवताओं का निवास है। मैं आपके शरीर में सोम, अग्नि, वरुण, सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा तथा बृहस्पति को भी देख रहा हूँ। आप ही कारण, कार्य, सूर्य क्रिया (प्रयत्न) और करण हैं। सत् और असत् पदार्थों की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान भी आप ही हैं। आप सबके उद्भव का स्थान होने से भव, संहार करने के कारण शर्व, 'रू’ अर्थात पाप एवं दु:ख को दूर करने से रुद्र, वरदाता होने से वरद तथा पशुओं (जीवों) के पालक होने के कारण सदा पशुपति कहलाते हैं। आपने ही अन्धकासुर का वध किया है, इसलिये आपका नाम अन्धकघाती है। आपको बारंबार नमस्कार है।[2]
आप तीन जटा और तीन मस्तक धारण करने वाले हैं। आपके हाथ में श्रेष्ठ त्रिशूल शोभा पाता है। आप त्रयम्बक, त्रिनेत्रधारी तथा त्रिपुरासुर का विनाश करने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आप दुष्टों पर अत्यन्त क्रोध करने के कारण चण्ड हैं। कुण्ड में जल की भाँति आपके उदर में सम्पूर्ण जगत स्थित है, इसलिये आपकों कुण्ड कहते हैं। आप अण्ड (ब्रह्माण्ड स्वरूप) और अण्डधर (ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले) हैं। आप दण्डधारी (सबको दण्ड देने वाले) और समकर्ण (सबकी समान रूप से सुनने वाले) हैं। दण्डधारण करके मूँछ मुँड़ाने वाले संन्यासी भी आपके ही स्वरूप हैं, इसलिये आपका नाम दण्डिमुण्ड है। आपको नमस्कार है। आपकी दाढ़े बड़ी-बड़ी और सिर के बाल ऊपर की ओर उठे हुए हैं, इसलिये आप ऊर्ध्वदंष्ट्र तथा ऊर्ध्वकेश कहलाते हैं। आप ही शुक्ल (विशुद्ध ब्रह्म) और आप ही अवतत (जगत् के रूप में विस्तृत) हैं। आप रजोगुण को अपनाने पर विलोहित और तमोगुण का आश्रय लेने पर ध्रुम कहलाते हैं। आपकी ग्रीवा में नीले रंग का चिह्न है, इसलिये आपको नीलग्रीव कहते हैं। आपको नमस्कार है। आपके रूप की कहीं भी समता नहीं है, इसलिये आप अप्रतिरूप हैं। विविध रूप धारण करने के कारण आपका नाम विरूप है। आप ही परमकल्याणकारी शिव हैं। आप ही सूर्य हैं, आप ही सूर्यमण्डल के भीतर सुशोभित होते हैं। आप अपनी ध्वजा और पताका पर सूर्य का चिह्न धारण करते हैं। आपको नमस्कार है। आप प्रमथगणों के अधीश्वर हैं।
वृषभ के कंधों के समान आपके कंधे भरे हुए हैं। आप पिनाक धनुष धारण करते हैं। शत्रुओं का दमन करने वाले और दण्डस्वरूप हैं। किरात या तपस्वी के रूप में विचरते समय आप भोजपत्र और वल्कलवस्त्र धारण करते हैं। आपको नमस्कार है। हिरण्य (सुवर्ण) को उत्पन्न करने के कारण हिरण्यगर्भ कहलाते हैं। सुवर्ण के ही कवच और मुकुट धारण करने से आपको हिरण्यकवच और हिरण्यचूड़ कहा गया है। आप सुवर्ण के अधिपति हैं। आपको सादर नमस्कार है। जिनकी स्तुति हो चुकी है, वे आप हैं। जो स्तुति के योग्य हैं, वे भी आप हैं और जिनकी स्तुति हो रही है, वे भी आप ही हैं। आप सर्वस्वरूप, सर्वभक्षी और सम्पूर्ण भूतों के अन्तरात्मा हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। आप ही होता और मन्त्र हैं। आपको नमस्कार है। आपकी ध्वजा और पताका का रंग श्वेत है। आपको नमस्कार है। आप नाभ (नाभि में सम्पूर्ण जगत को धारण करने वाले), नाभ्य (संसार-चक्र के नाभि-स्थान) तथा कट-कट (आवरण के भी आवरण) हैं। आपको नमस्कार है। आपकी नासिका कृश (पतली) है, इसलिये आप कृशनस कहलाते हैं। आपके अवयव कृश होने से आपको कृशांग तथा शरीर दुबला होने से कृश कहते हैं। आप अत्यन्त हर्षोल्लास से परिपूर्ण, विशेष हर्ष का अनुभव करने वाले और हर्ष की किल-किल ध्वनि हैं। आपको नमस्कार है। आप समस्त प्राणियों के भीतर शयन करने वाले अन्तर्यामी पुरुष हैं। प्रलयकाल में योगनिद्रा का आश्रय लेकर सोते और सृष्टि के प्रारम्भ काल में कल्पान्त निद्रा से जागते हैं। आप ब्रह्मरूप से सर्वत्र स्थित और कालरूप से सदा दौड़ने वाले हैं। मूँड़ मुँड़ाने वाले सन्यासी और जटाधारी तपस्वी भी आपके ही स्वरूप हैं। आपको नमस्कार है।[3]
आपका ताण्डव-नृत्य बराबर चलता रहता है। आप मुख से श्रृंगी आदि बाजे बजाने में कुशल हैं। कमल पुष्प की भेंट लेने के लिये सदा उत्सुक रहते हैं। गाने और बजाने की कला में तत्पर रहकर आप बड़ी शोभा पाते हैं। आपको प्रणाम है। आप अवस्था में सबसे ज्येष्ठ और गुणों में भी सबसे श्रेष्ठ हैं। आपने बल नामक दैत्य को इन्द्र रूप से मथ डाला था। आप काल के भी नियन्ता और सर्वशक्तिमान हैं। महाप्रलय और अवान्तर-प्रलय भी आप ही हैं। आपको नमस्कार है। प्रभों! आपका अट्टाहास भयंकर शब्द करने वाली दुन्दुभि के समान जान पड़ता है। दस भुजाओं से सुशोभित होने वाले उग्ररूपधारी आपको मेरा नित्य बारंबार नमस्कार है। आपके हाथ में कपाल है। चिता का भस्म आपको बहुत प्रिय है। आप सबको भयभीत करने वाले और स्वयं निर्भय हैं तथा शम-दम आदि तीक्ष्ण व्रतों को धारण करते हैं। आपको नमस्कार है। आपका मुख विकृत है। जिह्वा खड्ग के समान है। आपका मुख दाढ़ों से सुशोभित होता है। आप कच्चे-पक्के फलों के गुद्दे के लिये लुभायमान रहते हैं। तुम्बी और वीणा आपको विशेष प्रिय हैं। आपको प्रणाम है। आप वृष (वृष्टिकर्ता), वृष्य (धर्म की वृद्धि करने वाले ), गोवृष (नन्दी) और वृष (धर्म) आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। कटंकट (नित्य गतिशील), दण्ड (शासक) और पचपच (सम्पूर्ण भूतों को पचाने वाला काल) भी आपके ही नाम है। आपको नमस्कार हैं। आप सबसे श्रेष्ठ वरस्वरूप और वरदाता हैं। उत्तम वस्त्र, माल्य और गन्ध धारण करते हैं तथा भक्त को इच्छानुसार एवं उससे भी अधिक वर देने वाले हैं। आपको प्रणाम है। रागी और विरागी- दोनों जिनके स्वरूप हैं, जो ध्यानपरायण, रूद्राक्ष की माला धारण करने वाले, कारण रूप में सबमें व्याप्त और कार्यरूप से पृथक-पृथक दिखायी देने वाले हैं तथा जो सम्पूर्ण जगत को छाया और धूप प्रदान करते हैं, उन भगवान को नमस्कार है। जो अघोर, घोर और घोर से भी घोरतर रूप धारण करने वाले हैं तथा जो शिव, शान्त एवं परमशान्तरूप हैं, उन भगवान शंकर को मेरा बारंबार नमस्कार है। एक पाद, अनेक नेत्र और एक मस्तक वाले आपको प्रणाम है।
भक्तों की दी हुई छोटी-से-छोटी वस्तु के लिये भी लालायित रहने वाले और उसके बदले में उन्हें अपार धनराशि बाँट देने की रुचि रखने वाले आप भगवान रुद्र को नमस्कार है। जो इस विश्व का निर्माण करने वाले कारीगर, गौरवर्ण के शरीर वाले तथा सदा शान्तरूप से रहने वाले हैं, जिनकी घण्टाध्वनि शत्रुओं को भयभीत कर देती है तथा जो स्वयं ही घण्टानाद और अनाहतध्वनि के रूप में श्रवणगोचर होते हैं उन महेश्वर को प्रणाम है। जिनके मन्दिर में लगे हुए घण्टों को सहस्रों आदमी बजाते हैं, घण्टों की माला जिन्हें प्रिय है, जिनके प्राण ही घण्टा के समान ध्वनि करते हैं, जो गन्ध और कोलाहलरूप हैं, उन भगवान शिव को नमस्कार है। आप हूँ (क्रोध), हूँ (हिंकार), हूँ (आकाश, सूर्य और ईश्वर)– इन सबसे परे विद्यमान शान्तस्वरूप परब्रह्मा हैं, ‘हूं’ हूं’ करना आपको प्रिय लगता है, आप ‘शान्त रहो’ ऐसा कहकर सदा सबको आश्वासन देने वाले हैं तथा पर्वतों पर और वृक्षों के नीचे निवास करते हैं। आपको प्रणाम है।[4] आप फल के भीतर के गुद्देरूप मांस के प्रलोभी श्रृगालरूप हैं। आप ही सबको तारने वाले तथा तरण-तारण के साधन हैं। आप ही यज्ञ और आप ही यजमान हैं। आप ही हुत (हवन) और आप ही प्रहुत (अग्नि) हैं। आपको नमस्कार है। आप ही यज्ञ के निर्वाहक अथवा उसे सब देवताओं तक पहुँचाने वाले अग्निदेव हैं। आप मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले हैं। आप ही भक्तों का कष्ट देखकर संतप्त होने वाले तथा शत्रुओं को संताप देने वाले हैं। आप ही तट हैं। आप ही तटवर्ती नदी आदि हैं तथा आप ही तटों के पालक हैं। आपको नमस्कार है। आप ही अन्नदाता, अन्नपति और अन्न के भोक्ता हैं। आपके सहस्रों मस्तक और सहस्रों चरण हैं। आपको बारंबार प्रणाम है। आप अपने सहस्रों हाथों में सहस्रों शूल लिये रहते हैं। आपके सहस्रों नेत्र हैं। आपकी अंगकान्ति प्रात: कालीन सूर्य के समान देदीप्यमान है।
आप बालकरूप धारण करने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आप श्रीकृष्ण रूप से संगी-साथी बालकों के रक्षक तथा बालकों के साथ खेल करने वाले हैं। आप सबकी अपेक्षा वृद्ध हैं। भक्ति और प्रेम के लोभी हैं। दुष्टों के पापाचार से क्षुब्ध हो उठते हैं और दुराचारियों को क्षोभ में डालने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आपके केश गंगा के तरंगों से अंकित तथा मुञ्ज के समान हैं। आपको नमस्कार है। आप ब्राह्मणों के छ: कर्म-अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन तथा दान और प्रतिग्रह से संतुष्ट रहते हैं; स्वयं यजन, अध्ययन और दानरूप तीन कर्मों में ही तत्पर रहते हैं। आपको प्रणाम है। आप वर्ण और आश्रमों के भिन्न-भिन्न कर्मों का विधिवत विभाग करने वाले, जपनीय मन्त्ररूप, घोषस्वरूप तथा कोलाहलमय हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। आपके नेत्र श्वेत पिंगलवर्ण के हैं, काले और लाल रंग के हैं। आप प्राणवायु (श्वास) को जीतने वाले, दण्ड (आयुध) रूप, ब्रह्माण्डरूपी घट को फोड़ने वाले तथा कृश-शरीरधारी हैं। आपको नमस्कार है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष देने के विषय में आपकी कीर्तिकथा वर्णन करने के योग्य है। आप सांख्यस्वरूप, सांख्ययोगियों में प्रधान तथा सांख्यशास्त्र को प्रवृत करने वाले हैं। आपको प्रणाम है। आप रथ पर बैठकर तथा बिना रथ के भी घूमने वाले हैं। जल, अग्नि, वायु तथा आकाश– इन चारों मार्गों पर आपकी गति है। आप काले मृगचर्म को दुपट्टे की भाँति ओढ़ने वाले तथा सर्पमय यज्ञोपवीत धारण करने वाले हैं। आपको प्रणाम है। ईशान! आपका शरीर वज्र के समान कठोर है। हरिकेश! आपको नमस्कार है। व्यक्ताव्यक्त स्वरूप परमेश्वर! आप त्रिनेत्रधारी तथा अम्बिका के स्वामी हैं। आपको नमस्कार है। आप कामस्वरूप, कामनाओं को पूर्ण करने वाले, कामदेव के नाशक, तृप्त और अतृप्त का विचार करने वाले, सर्वस्वरूप, सब कुछ देने वाले, सबके संहारक और संध्याकाल के समान रंग वाले हैं। आपको प्रणाम है। महाबल! महाबहो! महासत्व! महाद्युते! आप महान मेघों की घटा के समान रंग वाले महाकालस्वरूप हैं। आपको नमस्कार है। आपका श्रीविग्रह स्थूल और जीर्ण है। आप जटाधारी हैं। वल्कल और मृगचर्म धारण करते हैं। देदीप्यमान सूर्य और अग्नि के समान ज्योतिर्मयी जटा से सुशोभित हैं। वल्कल और मृगचर्म ही आपके वस्त्र हैं। आप सहस्रों सूर्यों के समान प्रकाशमान और सदा तपस्या में संलग्न रहने वाले हैं। आपको नमस्कार है।[5]
आप जगत को उन्माद (मोह) में डालने वाले हैं। आपके मस्तक पर गंगा जी की सैकड़ों लहरें और भँवरें उठती रहती हैं। आपके केश सदा गंगाजल से भीगे रहते हैं। आप चन्द्रमा को क्षय-वृद्धि के चक्कर में डालने वाले हैं। आप ही युगों की पुनरावृति करने वाले और मेघों के प्रवर्तक हैं। आपको नमस्कार है। आप ही अन्न, अन्न के भोक्ता, अन्न का पालन करने वाले, अन्न स्रष्टा, पाचक, पक्वान्नभोजी, प्राणवायु तथा जठरानलरूप हैं। देवदेवेश्वर! जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज- ये चार प्रकार के प्राणिसमूह आप ही हैं। ब्रह्मवेताओं में श्रेष्ठ! आप ही चराचर जीवों की सृष्टि तथा संहार करने वाले हैं। ब्रह्मज्ञानी पुरुष आप ही को ब्रह्म कहते हैं। वेदवादी विद्वान आपको ही मन का परम कारण, आकाश, वायु तेज की निधि, ॠक्, साम तथा ॐकार बताते हैं। सुरश्रेष्ठ! सामगान करने वाले वेदवेत्ता पुरुष ‘हा ३ यि, हा ३ यि, हू ३ वा, हा ३ यि, हा ३ वु, हा ३ यि’ आदि का बारंबार उच्चारण करके निरन्तर आपकी ही महिमा का गान करते हैं। यजुर्वेद और ॠग्वेद आपके ही स्वरूप हैं। आप ही हविष्य हैं। वेदों और उपनिषदों के समूह अपनी स्तुतियों द्वारा आपकी ही महिमा का प्रतिपादन करते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्त्यज– ये आपके ही स्वरूप हैं। मेघों की घटा, बिजली, गर्जना और गड़गड़ाहट भी आप ही हैं। संवत्सर, ॠतु, मास, पक्ष, युग, निमेष, काष्ठा, नक्षत्र, ग्रह और कला भी आप ही हैं। वृक्षों में प्रधान वट-पीपल आदि, पर्वतों में उनके शिखर, वन-जन्तुओं में व्याघ्र, पक्षियों में गरुड़ तथा सर्पों में अनन्त आप ही हैं।
समुद्रों में क्षीरसागर, यन्त्रों (अस्त्रों) में धनुष, चलाये जाने वाले आयुधों में वज्र और व्रतों में सत्य भी आप ही हैं। आप ही द्वेष, इच्छा, राग, मोह, क्षमा, अक्षमा, व्यवसाय, धैर्य, लोभ, काम, क्रोध, जय तथा पराजय हैं। आप गदा, बाण, धनुष, खाटका अंग तथा झर्झर नामक अस्त्र धारण करने वाले हैं। आप छेदन, भेदन और प्रहार करने वाले हैं। सत्पथ पर ले जाने वाले, शुभ का मनन करने वाले तथा पिता माने गये हैं। दस लक्षणों वाला धर्म तथा अर्थ और काम भी आप ही हैं। गंगा, समुद्र, नदियाँ, गदहे, तालाब, लता, वल्ली, तृण, औषधि, पशु, मृग, पक्षी, द्रव्य और कर्मों के आरम्भ तथा फूल और फल देने वाला काल भी आप ही हैं। आप देवताओं के आदि और अन्त हैं। गायत्री मन्त्र और ॐकार भी आप ही हैं। हरित, लोहित, नील, कृष्ण, रक्त, अरुण, कद्रु, कपिल, कबूतर के समान तथा मेचक (श्याम मेघ के समान )- ये दस प्रकार के रंग भी आपके ही स्वरूप हैं। आप वर्ण रहित होने के कारण अवर्ण और अच्छे वर्ण वाले होने से सुवर्ण कहलाते हैं। आप वर्णों के निर्माता और मेघ के समान हैं। आपके नाम में सुन्दर वर्णों (अक्षरों)- का उपयोग हुआ है, इसलिये आप सुवर्णनामा हैं तथा आपको श्रेष्ठ वर्ण प्रिय हैं। आप ही इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, अग्नि, सूर्यचन्द्र का ग्रहण, चित्रभानु (सूर्य), राहू और भानू हैं। होत्र (स्त्रवा), होता, हवनीय पदार्थ, हवन-क्रिया तथा (उसके फल देने वाले) परमेश्वर भी आप ही हैं। वेद की त्रिसौपर्ण नामक श्रुतियों में तथा यजुर्वेद के शतरूद्रिय-प्रकरण में जो बहुत-से-वैदिक नाम हैं, वे सब आप ही के नाम हैं।[6]
आप पवित्रों के भी पवित्र और मंगलों के भी मंगल हैं। आप ही गिरिक (अचेतन को भी चेतन करने वाले), हिंडुक (गमनागमन करने वाले), संसार-वृक्ष, जीव शरीर, प्राण, सत्त्व, रज, तम, अप्रमद (स्त्रीरहित-ऊर्ध्वरेता), प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, उन्मेष, निमेष (आँखों का खोलना-मींचना), छींकना और जँभाई लेना आदि चेष्टाएँ भी आप ही हैं। आपकी अग्निमयी लाल रंग की दृष्टि भीतर छिपी हुई है। आपके मुख और उदर महान हैं। रोएँ सूई के समान हैं। दाढ़ी-मूछ काली है। सिर के बाल ऊपर की ओर उठे हुए हैं। आप चराचर-स्वरूप हैं। गाने-बजाने के तत्त्व को जानने वाले हैं। गाना-बजाना आपको अधिक प्रिय है। आप मत्स्य, जलचर और जालधारी घड़ियाल हैं। फिर भी अकल (बन्धन से परे) हैं। आप केलिकला से युक्त और कलहरूप हैं। आप ही अकाल, अतिकाल, दुष्काल तथा काल हैं। मृत्यु, क्षुर (छेदन करने का शस्त्र), कृत्य (छेदन करने योग्य), पक्ष (मित्र) तथा अपक्ष-क्षयंकर (शत्रुपक्ष का नाश करने वाले) भी आप ही हैं। आप मेघ के समान काले, बड़ी-बड़ी दाढ़ों वाले और प्रलयकालीन मेघ हैं? घण्ट (प्रकाशवान), अघण्ट (अव्यक्त प्रकाश वाले), घटी (कर्मफल से युक्त करने वाले), घण्टी (घण्टा वाले), चरूचेली (जीवों के साथ क्रीड़ा करने वाले) तथा मिली-मिली (कारणरूप से सबमें व्याप्त)- ये सब आप ही हैं। आप ही ब्रह्म, अग्नियों के स्वरूप, दण्डी, मुण्ड तथा त्रिदण्डधारी हैं। चार युग और चार वेद आपके ही स्वरूप हैं तथा चार प्रकार के होतृ-कर्मों के प्रवर्तक आप ही हैं। आप चारों आश्रमों के नेता तथा चारों वर्णों की सृष्टि करने वाले हैं। आप ही अक्षयप्रिय, धूर्त, गणाध्यक्ष और गणाधिप आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। आप रक्त वस्त्र तथा लाल फूलों की माला पहनते हैं, पर्वत पर शयन करते और गेरूए वस्त्र से प्रेम रखते हैं। आप ही शिल्पियों में सर्वश्रेष्ठ शिल्पी (कारीगर) तथा सब प्रकार की शिल्प कला के प्रवर्तक हैं।
आप भगदेवता की आँख फोड़ने के लिये अंकुश, चण्ड (अत्यन्त कोप करने वाले) और पूषा के दाँत नष्ट करने वाले हैं। स्वाहा, स्वधा, वषट्-नमस्कार और नमो नम: आदि पद आपके ही नाम हैं। आप गूढ़ व्रतधारी, गुप्त तपस्या करने वाले, तारकमन्त्र और ताराओं से भरे हुए आकाश हैं। धाता (धारण करने वाले), विधाता (सृष्टि करने वाले), संधाता (जोड़ने वाले), विधाता, धारण और अधर (आधाररहित) भी आप ही के नाम हैं। आप ब्रह्मा, तप, सत्य, ब्रह्मचर्य आर्जव (सरलता), भूतात्मा (प्राणियों के आत्मा), भूतों की सृष्टि करने वाले, भूत (नित्यसिद्ध), भूत, भविष्य और वर्तमान की उत्पति के कारण, भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, ध्रुव (स्थिर), दान्त (दमनशील) और महेश्वर हैं। दीक्षित (यज्ञ की दीक्षा लेने वाले), अदीक्षित, क्षमावान, दुर्दान्त, उद्दण्ड प्राणियों का नाश करने वाले, चन्द्रमा की आवृति करने वाले (मास), युगों की आवृति करने वाले (कल्प), संवर्त (प्रलय) तथा सम्प्रवर्तक (पुन: सृष्टि-संचालन करने वाले) भी आप ही हैं। आप ही काम, बिन्दु, अणु (सूक्ष्म) और स्थूलरूप हैं। आप कनेर के फूल की माला अधिक पसंद करते हैं। आप ही नन्दीमुख, भीममुख (भयंकर मुख वाले), सुमुख, दुर्मुख, अमुख (मुखरहित), चतुर्मुख, बहुमुख तथा युद्ध के समय शत्रु का संहार करने के कारण अग्निमुख (अग्नि के समान मुख वाले) हैं। हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शकुनि (पक्षी के समान असंग), महान सर्पों के स्वामी (शेषनाग) और विराट भी आप ही हैं।[7]
आप अधर्म के नाशक, महापार्श्व, चण्डधार, गणाधिप, गोनर्द, गौओं को आपत्ति से बचाने वाले, नन्दी की सवारी करने वाले, त्रैलोक्य रक्षक, गोविन्द (श्रीकृष्णरूप), गोमार्ग (इन्द्रियों के संचालक), अमार्ग (इन्द्रियों के अगोचर), श्रेष्ठ, स्थिर, स्थाणु, निष्कम्प, कम्प, दुर्वारण (जिनका सामना करना कठिन है, ऐसे), दुर्विषह (असह्य वेग वाले), दु:सह, दुर्लंघ्य, दुर्द्धर्ष, दुष्प्रकम्प, दुर्विष, दुर्जय, जय, शश (शीघ्रगामी), शशांक (चन्द्रमा) तथा शमन (यमराज) हैं। सर्दी-गर्मी, क्षुधा, वृद्धावस्था तथा मानसिक चिन्ता को दूर करने वाले भी आप ही हैं। आप ही आधि-व्याधि तथा उसे दूर करने वाले हैं। मेरे यज्ञरूपी मृग के वधिक तथा व्याधियों को लाने और मिटाने वाले भी आप ही हैं। (कृष्णरूप में) मस्तक पर शिखण्ड (मोरपंख) धारण करने के कारण आप शिखण्डी हैं। आप कमल के समान नेत्रों वाले, कमल के वन में निवास करने वाले, दण्ड धारण करने वाले, त्र्यम्बक, उग्रदण्ड और ब्रह्माण्ड के संहारक हैं। विषाग्रि को पी जाने वाले, देवश्रेष्ठ, सोमरस का पान करने वाले और मरुद्गणों के स्वामी हैं। देवाधिदेव! जगन्नाथ! आप अमृत पान करने वाले और गणों के स्वामी हैं। विषाग्नि तथा मृत्यु से रक्षा करने वाले और दूध एवं सोमरस का पान करने वाले हैं। आप सुख से भ्रष्ट हुए जीवों के प्रधान रक्षक तथा तुषितनामक देवताओं के आदिभूत ब्रह्मा जी का भी पालन करने वाले हैं। आप ही हिरण्यरेता (अग्नि), पुरुष (अन्तर्यामी) तथा आप ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक हैं।
बालक-युवा और वृद्ध भी आप ही हैं। नागेश्वर! आप जीर्ण दाढ़ों वाले और इन्द्र हैं। आप विश्वकृत (जगत के संहारक), विश्वकर्ता (प्रजापति), विश्वकृत (ब्रह्मा जी), विश्व की रचना करने वाले प्रजापतियों में श्रेष्ठ, विश्व का भार वहन करने वाले, विश्वरूप, तेजस्वी और सब ओर मुख वाले हैं। चन्द्रमा और सूर्य आपके नेत्र तथा पितामह ब्रह्मा आपके हृदय हैं। आप ही समुद्र हैं, सरस्वती आपकी वाणी है, अग्नि और वायु बल हैं तथा आपके नेत्रों का खुलना और बंद होना ही दिन और रात्रि हैं। शिव! आपके महात्म्य को ठीक-ठीक जानने में ब्रह्माण, विष्णु तथा प्राचीन ऋषि भी समर्थ नहीं हैं। आपके जो सूक्ष्म रूप हैं वे हम लोगों की दृष्टि में नहीं आते। भगवन! जैसे पिता अपने औरस पुत्र की रक्षा करता है, उसी तरह आप सर्वदा मेरी रक्षा करें। अनघ! मैं आपके द्वारा रक्षित होने योग्य हूँ, आप अवश्य मेरी रक्षा करें, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप भक्तों पर दया करने वाले भगवान हैं और मैं सदा के लिये आपका भक्त हूँ। जो हजारों मनुष्यों पर माया का परदा डालकर सबके लिये दुर्बोध हो रहे हैं, अद्वितीय हैं तथा समुद्र के समान कामनाओं का अन्त होने पर प्रकाश में आते हैं, वे परमेश्वर नित्य मेरी रक्षा करें। जो निद्रा के वशीभूत न होकर प्राणों पर विजय पा चुके हैं और इन्द्रियों को जीतकर सत्त्वगुण में स्थित हैं, ऐसे योगीलोग ध्यान में जिस ज्योतिर्मय तत्त्व का साक्षात्कार करते हैं, उस योगात्मा परमेश्वर को नमस्कार है। जो सदा जटा और दण्ड धारण किये रहते हैं, जिनका उदर और शरीर विशाल है तथा कमण्डलु ही जिनके लिये तरकस का काम देता है, ऐस ब्रह्मा जी के रूप में विराजमान भगवान शिव को प्रणाम है। जिनके केशों में बादल, शरीर की संधियों में नदियाँ और उदर में चारों ओर समुद्र हैं, उन जलस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।[8]
जो प्रलयकाल उपस्थित होने पर सब प्राणियों का संहार करके एकार्णव के जल में शयन करते हैं, उन जलशायी भगवान की मैं शरण लेता हूँ। जो रात में राहु के मुख में प्रवेश करके स्वयं चन्द्रमा के अमृत का पान करते हैं; तथा स्वयं ही राहु बनकर सूर्य पर ग्रहण लगाते हैं, वे परमात्मा मेरी रक्षा करें। ब्रह्मा जी के बाद उत्पन्न होने वाले जो देवता और पितर बालक की भाँति यज्ञ में अपने-अपने भाग ग्रहण करते हैं, उन्हें नमस्कार है। वे ‘स्वाहा और स्वधा’ के द्वारा अपने भाग प्राप्त करके प्रसन्न हों। जो अंगुष्ठमात्र जीव के रूप में सम्पूर्ण देहधारियों के भीतर विराजमान हैं, वे सदा मेरी रक्षा और वृद्धि करें। जो देह के भीतर रहते हुए स्वयं न रोकर देहधारियों को ही रुलाते हैं, स्वयं हर्षित होकर उन्हें ही हर्षित करते हैं, उन सब रुद्रों को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ। नदी, समुद्र, पर्वत, गुहा, वृक्षों की जड़, गोशाला, दुर्गम पथ, वन, चौराहे, सड़क, चौतरे, किनारे, हस्तिशाला, अश्वशाला, रथशाला, पुराने बगीचे, जीर्ण गृह, पंचभूत, दिशा, विदिशा, चन्द्रमा, सूर्य तथा उन-उनकी किरणों में, रसातल में और उससे भिन्न स्थानों में भी जो अधिष्ठातृ देवता के रूप में व्याप्त हैं, उन सबको सदा नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है।
जिनकी संख्या, प्रमाण और रूप की सीमा नहीं है, जिनके गुणों की गिनती नहीं हो सकती, उन रुद्रों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ। आप सम्पूर्ण भूतों के जन्मदाता, सबके पालक और संहारक हैं; तथा आप ही समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा हैं। इसीलिये मैंने आपको पृथक निमन्त्रण नहीं दिया। नाना प्रकार की दक्षिणाओं वाले यज्ञों द्वारा आप ही का यजन किया जाता है और आप ही सबके कर्ता हैं, इसीलिये मैनें आपको अलग निमन्त्रण नहीं दिया। अथवा देव! आपकी सूक्ष्म माया से मैं मोह में पड़ गया था, इस कारण से भी मैंने आपको निमन्त्रण नहीं दिया। भगवन भव! आपका भला हो, मैं भक्तिभाव के साथ आपकी शरण में आया हूँ, इसलिये अब मुझ पर प्रसन्न होइये। मेरा हृदय, मेरी बुद्धि और मेरा मन सब आपमें समर्पित हैं। इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके प्रजापति दक्ष चुप हो गये। तब भगवान शिव ने भी बहुत प्रसन्न होकर दक्ष से कहा- ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले दक्ष! तुम्हारे द्वारा की हुई इस स्तुति से मैं बहुत संतुष्ट हूँ। यहाँ अधिक क्या कहूँ, तुम मेरे निकट निवास करोगे। प्रजापति! मेरे प्रसाद से तुम्हें एक हजार अश्वमेघ तथा एक सौ वाजपेय यज्ञ का फल मिलेगा’। तदनन्तर! वाक्यविशारद, लोकनाथ भगवान शिव ने प्रजापति को सान्तवना देने वाला युक्तियुक्त एवं उत्तम वचन कहा- ‘दक्ष! दक्ष! इस यज्ञ में जो विघ्न डाला गया है, इसके लिये तुम खेद न करना। मैंने पहले कल्प में भी तुम्हारे यज्ञ का विध्वंस किया था। यह घटना भी पूर्वकल्प के अनुसार ही हुई है। सुव्रत! मैं पुन: तुम्हें वरदान देता हूँ, तुम इसे स्वीकार करो और प्रसन्नवदन तथा एकाग्रचित्त होकर यहाँ मेरी यह बात सुनो।[9]
‘पूर्वकाल में षडंग वेद, सांख्ययोग और तर्क से निश्चित करके देवताओं ने और दानवों ने जिस विशाल एवं दुष्कर तप का अनुष्ठान किया था (उससे भी उत्तम व्रत मैं तुम्हें बता रहा हूँ)। दक्ष! मैंने पूर्वकाल में एक शुभकारक पाशुपत नामक व्रत को प्रकट किया था, जो अपूर्व है। साधन और सिद्धि सभी अवस्थाओं में सब प्रकार से कल्याणकारी, सर्वतोमुखी (सभी वर्णों और आश्रमों के अनुकूल) तथा मोक्ष का साधक होने के कारण अविनाशी है। वर्षों तक पुण्यकर्म करने और यम-नियम नामक दस साधनों को अभ्यास में लाने से उसकी उपलब्धि होती है। वह गूढ़ है। मूर्ख मनुष्य उसकी निन्दा करते हैं। वह समस्त वर्णधर्म और आश्रम-धर्म के अनुकूल, सम और किसी-किसी अंश में विपरीत भी है। जिन्हें सिद्धान्त का ज्ञान है उन्होंने इसे अपनाने का पूर्ण निश्चय कर लिया है। यह व्रत सभी आश्रमों से बढ़कर है। इसके अनुष्ठान से उत्तम एवं प्रचुर फल की प्राप्ति होती है। महाभाग! उस पाशुपत व्रत के अनुष्ठान का फल तुम्हें प्राप्त हो। अब तुम अपनी मानसिक चिन्ता का परित्याग कर दो’। दक्ष से ऐसा कहकर पत्नी और पार्षदों सहित अमित पराक्रमी महादेव जी वहीं अन्तर्धान हो गये।[10]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 44-59
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 60-77
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 78-87
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 88-100
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 101-114
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 115-133
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 134-149
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 150-166
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 167-186
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 187-203
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आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना
- मोक्षधर्म पर्व
शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
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