महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 167-186

चतुरशीत्‍यधिकद्विशततम (284) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 167-186 का हिन्दी अनुवाद


जो प्रलयकाल उपस्थित होने पर सब प्राणियों का संहार करके एकार्णव के जल में शयन करते हैं, उन जलशायी भगवान की मैं शरण लेता हूँ। जो रात में राहु के मुख में प्रवेश करके स्‍वयं चन्‍द्रमा के अमृत का पान करते हैं; तथा स्‍वयं ही राहु बनकर सूर्य पर ग्रहण लगाते हैं, वे परमात्‍मा मेरी रक्षा करें। ब्रह्मा जी के बाद उत्‍पन्‍न होने वाले जो देवता और पितर बालक की भाँति यज्ञ में अपने-अपने भाग ग्रहण करते हैं, उन्‍हें नमस्‍कार है। वे ‘स्‍वाहा और स्‍वधा’ के द्वारा अपने भाग प्राप्‍त करके प्रसन्‍न हों। जो अंगुष्‍ठमात्र जीव के रूप में सम्‍पूर्ण देहधारियों के भीतर विराजमान हैं, वे सदा मेरी रक्षा और वृद्धि करें। जो देह के भीतर रहते हुए स्‍वयं न रोकर देहधारियों को ही रुलाते हैं, स्‍वयं हर्षित होकर उन्‍हें ही हर्षित करते हैं, उन सब रुद्रों को मैं नित्‍य नमस्‍कार करता हूँ।

नदी, समुद्र, पर्वत, गुहा, वृक्षों की जड़, गोशाला, दुर्गम पथ, वन, चौराहे, सड़क, चौतरे, किनारे, हस्तिशाला, अश्‍वशाला, रथशाला, पुराने बगीचे, जीर्ण गृह, पंचभूत, दिशा, विदिशा, चन्‍द्रमा, सूर्य तथा उन-उनकी किरणों में, रसातल में और उससे भिन्‍न स्‍थानों में भी जो अधिष्‍ठातृ देवता के रूप में व्‍याप्‍त हैं, उन सबको सदा नमस्‍कार है, नमस्‍कार है, नमस्‍कार है। जिनकी संख्‍या, प्रमाण और रूप की सीमा नहीं है, जिनके गुणों की गिनती नहीं हो सकती, उन रुद्रों को मैं सदा नमस्‍कार करता हूँ। आप सम्‍पूर्ण भूतों के जन्‍मदाता, सबके पालक और संहारक हैं; तथा आप ही समस्‍त प्राणियों के अन्‍तरात्‍मा हैं। इसीलिये मैंने आपको पृथक निमन्‍त्रण नहीं दिया। नाना प्रकार की दक्षिणाओं वाले यज्ञों द्वारा आप ही का यजन किया जाता है और आप ही सबके कर्ता हैं, इसीलिये मैनें आपको अलग निमन्‍त्रण नहीं दिया। अ‍थवा देव! आपकी सूक्ष्‍म माया से मैं मोह में पड़ गया था, इस कारण से भी मैंने आपको निमन्‍त्रण नहीं दिया। भगवन भव! आपका भला हो, मैं भक्तिभाव के साथ आपकी शरण में आया हूँ, इसलिये अब मुझ पर प्रसन्‍न होइये। मेरा हृदय, मेरी बुद्धि और मेरा मन सब आपमें समर्पित हैं।

इस प्रकार महादेव जी की स्‍तुति करके प्रजापति दक्ष चुप हो गये। तब भगवान शिव ने भी बहुत प्रसन्‍न होकर दक्ष से कहा- ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले दक्ष! तुम्‍हारे द्वारा की हुई इस स्‍तुति से मैं बहुत संतुष्‍ट हूँ। यहाँ अधिक क्‍या कहूँ, तुम मेरे निकट निवास करोगे। प्रजा‍पति! मेरे प्रसाद से तुम्‍हें एक हजार अश्‍वमेघ तथा एक सौ वाजपेय यज्ञ का फल मिलेगा’। तदनन्‍तर! वाक्‍यविशारद, लोकनाथ भगवान शिव ने प्रजापति को सान्‍तवना देने वाला युक्तियुक्‍त एवं उत्तम वचन कहा- ‘दक्ष! दक्ष! इस यज्ञ में जो विघ्न डाला गया है, इसके लिये तुम खेद न करना। मैंने पहले कल्‍प में भी तुम्‍हारे यज्ञ का विध्‍वंस किया था। यह घटना भी पूर्वकल्‍प के अनुसार ही हुई है। सुव्रत! मैं पुन: तुम्‍हें वरदान देता हूँ, तुम इसे स्‍वीकार करो और प्रसन्नवदन तथा एकाग्रचित्त होकर यहाँ मेरी यह बात सुनो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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