मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 110 के अनुसार सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय का वर्णन इस प्रकार है[1]-

भीष्म का युधिष्ठिर को कथा सुनाना

युधिष्ठिर ने पूछा- तात! बहुत-से कठोर स्‍वभाव वाले मनुष्‍य ऊपर से कोमल और शान्‍त बने रहते हैं, तथा कोमल स्‍वभाव के लोग कठोर दिखायी देते हैं, ऐसे मनुष्‍यों की मुझे ठीक-ठीक पहचान कैसे हो? भीष्‍म जी बोले-युधिष्ठिर! इस विषय में जानकार लोग एक बाघ और सियार के संवाद रुप प्राचीन आख्‍यान का उदाहरण दिया करते हैं, उसे ध्‍यान देकर सुनो। पूर्वकाल की बात है, प्रचुर धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न पुरिका नाम की नगरी में पौरिक नाम से प्रसिद्ध एक राजा राज्‍य करता था। वह बड़ा ही क्रुर और नराधम था, दूसरे प्राणियों की हिंसा में ही उसका मन लगता था। धीरे-धीरे उसकी आयु समाप्‍त हो गयी और वह ऐसी गति को प्राप्‍त हुआ, जो किसी भी प्राणी को अभीष्‍ट नहीं है। वह अपने पूर्वक्रम से दुषित होकर दूसरे जन्‍म में गीदड़ हो गया। उस समय अपने पूर्व जन्‍म के वैभव का स्‍मरण करके उस सियार को बड़ा खेद और वैराग्‍य हुआ। अत: वह दूसरों के द्वारा दिये हुए मांस को भी नहीं खाता था। अब उसने जीवों की हिंसा करनी छोड़ दी, सत्‍य बोलने का नियम ले लिया और दृढ़तापूर्वक अपने व्रत का पालन करने लगा। वह नियम समय पर वृक्षों से अपने आप गिरे हुए फलों का आहार करता था। व्रत और नियमों के पालन मे तत्‍पर हो कभी पता चबा लेता और कभी पानी पीकर ही रह जाता था। उसका जीवन संयम में बँध गया था। वह श्‍मशान भूमि में ही रहता था। वहीं उसका जन्‍म हुआ था, इसलिये वही स्‍थान उसे पसंद था। उसे और कहीं जाकर रहने की रुचि नहीं होती थी। सियार का इस तरह पवित्र आचार-विचार से रहना उसके सभी जाति-भाइयों को अच्‍छा न लगा। यह सब उनके लिये असहाय हो उठा; इसलिये वे प्रेम और विनयभरी बातें कहकर उसकी बुद्धि को विचलित करने लगे। उन्‍होंने कहा ‘भाई सियार! तू तो मांसाहारी जीव है और भयंकर श्‍मशान भूमि में निवास करता है, फिर भी पवित्र आचार-विचार से रहना चाहता है- वह विपरीत निश्‍चय हैं। ‘भैया! अत: तू हमारे ही समान होकर रह। तेरे लिये भोजन तो हम लोग ला दिया करेंगे। तू इस शौचाचार का नियम छोड़कर चुपचाप खा लिया करना। तेरी जाति का जो सदा से भोजन रहा है, वही तेरा भी होना चाहिये। उनकी ऐसी बात सुनकर सियार एकाग्रचित्त हो मधुर, विस्‍तृत, युक्तियुक्‍त तथा कोयल वचनों द्वारा इस प्रकार बोला-बन्‍धुओं! अपने बुरे आचरणों से ही हमारी जाति का कोई विश्‍वास नहीं करता। अच्‍छे स्‍वभाव और आचरण से ही कुल की प्रतिष्‍ठा होती हैं, अत: मैं भी वही कर्म करना चाहता हूँ, जिसमें अपने वंश का यश बढ़े।[1]

सियार का अपनी जाति भाइयों का समझाना

‘यदि मेरा निवास श्‍मशान भूमि में हैं तो इसके लिये मैं जो समाधान देता हूँ, उसको सुनो! आत्‍मा ही शुभ कर्मों के लिये प्ररेणा करता हैं। कोई आश्रम ही धर्म का कारण नहीं हुआ करता।[1] ‘क्‍या यदि कोई आश्रम में रहकर ब्राह्मण की हत्‍या करे तो उसे उसका पातक नहीं लगेगा और यदि कोई बिना आश्रम के स्‍थान में गोदान करें तो क्‍या वह व्‍यर्थ हो जायेगा? ‘तुम लोग केवल स्‍वार्थ के लोभ से मांस भक्षण में रचे-पचे रहते हो। उसके परिणामस्‍वरुप जो तीन दोष प्राप्‍त होते हैं, उनकी ओर मोहवश तुम्‍हारी दृष्टि नहीं जाती। ‘तुम लोगों की जीविका असंतोष से पूर्ण, निन्‍दनीय, धर्म की हानि के कारण दूषित तथा इहलोक और परलोक में भी अनिष्‍ट फल देने वाली हैं, इसलिये मैं उसे पसंद नहीं करता हूँ। सियार के इस पवित्र आचार-विचार की चर्चा चारों और फैल जाने के कारण एक प्रख्‍यात पराक्रमी व्‍याघ्र ने उसे विद्वान और विशुद्ध स्‍वभाव का मानकर उसके निकट पदार्पण किया और उसकी अपने अनुरुप करके स्‍वयं ही मन्‍त्री बनाने के लिये उसका वरण किया।[2]-

व्याघ्र और सियार का संवाद

व्‍याघ्र बोला-सौम्‍य! मैं तुम्‍हारे स्‍वरुप से परिचित हूँ। तुम मेरे साथ चलो और अपनी रुचि के अनुसार अधिक-से-अधिक भोगों का उपभोग करों। जो वस्‍तुएं प्रिय न हों, उन्‍हें त्‍याग देना। परंतु एक बात मैं तुम्‍हें सूचित कर देता हूँ। सारे संसार में यह बात प्रसिद्ध हैं कि हमारी जाति का स्‍वभाव कठोर होता है, अत: कोमलतापूर्वक व्‍यवहार करते हुए मेरे हित-साधन में लगे रहोगे तो अवश्‍य ही कल्‍याण के भागी होओगे। महामनस्‍वी! मृगराज के उस कथन की भूरि-भूरि प्रशंसा करके सियार ने कुछ नतमस्‍तक होकर विनययुक्‍त वाणी मे कहा। सियार बोला- मृगराज! आपने मेरे लिये जो बात कहीं हैं, वह सर्वथा आपके योग्‍य ही है तथा आप जो धर्म और अर्थसाधन में कुशल और शुद्ध स्‍वभाव वाले सहायकों (मन्त्रियों) की खोज कर रहे हैं, यह भी उचित हों। वीर! मन्‍त्री के बिना एकाकी राजा विशाल राज्‍य का शासन नहीं कर सकता। यदि शरीर को सुखा देने वाला कोई दुष्‍ट मन्‍त्री मिल गया तो उसके द्वारा भी शासन नहीं चलाया जा सकता। आपके प्रति अनुराग हो, जो नीति के जानकार, सदभाव-सम्‍पन्‍न, परस्‍पर गुटबंदी से रहित, विजय की अभिलाषा से युक्‍त, लोभरहित, कपटनीति में कुशल, बुद्धिमान, स्‍वामी के हित साधन में तत्‍पर और मनस्‍वी हों, ऐसे व्‍यक्तियों को सहायक या सचित्र बनाकर आप पिता और गुरु के समान उनका सम्‍मान करें।[2]

सियार का अपने गुणों का वर्णन=

मृगराज! मुझे तो संतोष के सिवा और कोई वस्‍तु रुचती ही नहीं हैं। मैं सुख, भोग और उनके आधारभूत ऐश्‍वर्य को नहीं चाहता। आपके पुराने सेवकों के साथ मेरे शील स्‍वभाव का मेल नहीं खायेगा। वे दुष्‍ट स्‍वभाव के जीव हैं। अत: मेरे निमित वे लोग आपके कान भरते रहेंगे। आप अन्‍याय तेजस्‍वी प्राणियों के भी स्‍पृहणीय आश्रय हैं। आपकी बुद्धि सुशिक्षित है। आप महान् भाग्‍यशाली तथा अपराधियों के प्रति भी दयालु हैं। आप दूरदर्शी, महान उत्‍साही, स्‍थूललक्ष्‍य (जिसका उदेश्‍य बहुत स्‍पष्‍ट हो वह), महाबली, कृतार्थ, सफलता-पूर्वक कार्य करने वाले तथा भाग्‍य से अलंकृत हैं। इधर मैं अपने आप में ही संतुष्‍ट रहने वाला हूँ। मैंने ऐसी जीविका अपनायी हैं, जो अत्‍यन्‍त दु:खमयी है। मैं राजसेवा के कार्य से अनभिज्ञ और वन में स्‍वच्‍छन्‍दतापूर्वक घूमने वाला हूँ।[2]

आत्मीयजनों का सम्मान

जो राजा के आश्रम में रहते हैं, उन्‍हें राजा की निन्‍दा से सम्‍बन्‍ध रखने वाले सभी दोष प्राप्‍त होते हैं। इधर मेरे जैसे वनवासियों का व्रतचर्या सर्वथा असंग और भय से रहित होता है। राजा जिसे अपने सामने बुलाता हैं, उसके हृदय में जो भय खड़ा होता है, वह वन में फल-मूल खाकर संतुष्‍ट रहने वाले लोगों के मन में नहीं होता है। एक जगह बिना किसी भय के केवल जल मिलता हैं और दूसरी जगह अन्‍त में भय देने वाला स्‍वादिष्‍ट अन्‍न प्राप्‍त होता है- इन दोनों को यदि विचार करके मैं देखता हूँ तो मुझे वहाँ ही सुख जान पड़ता हैं, जहाँ कोई भय नहीं हैं। राजाओं ने किन्‍हीं वास्‍तविक अपराधों के कारण उतने सेवकों को दण्‍ड नहीं दिया होगा, जितने कि लोगों के झूठ लगाये गये दोषों से कलंकित होकर राजा के हाथ से मारे गयें हैं। मृगराज! यदि आप मुझसे मन्त्रित्‍व का कार्य लेना ही ठीक समझते हैं तो मैं आपसे एक शर्त कराना चाहता हूँ, उसी के अनुसार आपको मेरे साथ बर्ताव करना उचित होगा। मेरे आत्‍मीयजनों का आपको सम्‍मान करना होगा। मेरी कही हुई हितकर बातें आपको सुननी होगीं। मेरे लिये जो जीविका की व्‍यवस्‍था आपने की हैं, वह आप ही के पास सुस्थिर एवं सुरक्षित रहे। मैं आपके दूसरे मन्त्रियों के साथ बैठकर कभी कोई परामर्श नहीं करुंगा, क्‍योंकि दूसरे नीतिज्ञ मन्‍त्री मुझसे ईर्ष्‍या करते हुए मेरे प्रति व्‍यर्थ की बातें कहने लगेंगे। मैं अकेला एकान्‍त में अकेले आप से मिलकर आपको हित की बातें बताया करुँगा। आप भी अपने जाति-भाइयों के कार्यों से मुझ से हिताहित को बात न पूछियेगा। मुझसे सलाह लेने के बाद यदि आपके पहले के मन्त्रियों की भूल प्रमाणित हो तो उन्‍हें प्राणदण्‍ड न दीजियेगा तथा कभी क्रोध में आकर मेरे आत्‍मीयजनों पर भी प्रहार न कीजियेगा। ‘अच्‍छा, ऐसा ही होगा’ यह कहकर शेर ने उसका बड़ा सम्‍मान किया।[3]-

सियार सचिव पद पर प्रतिष्ठित

सियार बाघराजा के बुद्धिदायक सचिव के पद पर प्रतिष्ठित हो गया। सियार बहुत अच्‍छा कार्य करने लगा और उसको अपने सभी कार्यों में बड़ी प्रशंसा प्राप्‍त होने लगी। इस प्रकार उसे सम्‍मानित होता देख पहले के राजसेवक संगठित हो बारंबार उससे द्वेष करने लगे। उनके मन में दुष्‍टता भरी थी। वे सियार के पास मित्रभाव से आते और उसे समझा-बुझाकर प्रसन्‍न करके अपने ही समान दोष के पथ पर चलाने की चेष्‍टा करने लगे। उनके आने के पहले वे और ही प्रकार से रहा करते थे। दूसरों का धन हड़प लिया करते थे, परंतु अब वैसा नहीं कर सकते थे। सियार ने उन सब पर ऐसी कड़ी पाबंदी लगा दी थी कि वे किसी को कोई भी वस्‍तु लेने में असमर्थ हो गये थे। उनकी यही इच्‍छा थी कि सियार भी डिग जाय; इसलिये वे तरह-तरह की बातों में उसे फुसलाते और बहुत-सा धन देने का लोभ देकर उसकी बुद्धि को प्रलोभन में फँसाना चाहते थे। परंतु सियार बड़ा बुद्धिमान था। अत: वह उनके प्रलोभन में आकर धैर्य से विचलित नहीं हुआ। तब दूसरे-दूसरे सभी सेवकों ने मिलकर उसके विनाश के लिये प्रतिज्ञा की और तद्नुसार प्रयन्‍त आरम्‍भ कर दिया।[3]

शेर को सेवकों द्वारा सियार के विषय में भड़काना

एक दिन उसके सेवको ने शेर के खाने के लिये जो मांस तैयार करके रखा गया था, उसके स्‍थान से हटाकर सियार के घर में रख दिया। जिसने जिस उदेश्‍य से उस मांस को चुराया और जिसने ऐसा करने की सलाह दी, वह सब कुछ सियार को मालूम हो गया था, तो भी किसी कारणवश उसने चुपचाप सह लिया। मन्‍त्री पद पर आते समय सियार ने यह शर्त करा ली थी कि राजन! यदि आप मुझसे मैत्री चाहते हैं तो किसी के बहकावे आकर मेरा विनाश न कर डालियेगा। भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! उधर शेर को जब भूख लगी और वह भोजन के लिये उठा, तब उसके खाने के लिये जो परोसा जाने वाला था, वह मांस उसे नहीं दिखायी दिया। तब मृगराज ने सेवकों को आज्ञा दी कि चोर का पता लगाओ। तब जिनकी यह करतूत थी, उन्‍हीं लोगों ने उस मांस के बारे में शेर को बताया- ‘महाराज! अपने को अत्‍यन्‍त बुद्धिमान और पण्डित मानने वाले आपके मन्‍त्री महोदय ने ही इस मांस का अपहरण किया है’। सियार की यह चपलता सुनकर शेर गुस्‍से से भर गया। उससे यह बात सही नहीं गयी, अत: मृगराज ने उसका वध करने का ही विचार कर लिया। उसका यह छिद्र देखकर पहले के मन्‍त्री आपस में कहने लगे, वह हम सब लोगों की जीविका नष्‍ट करने पर तुला हुआ हैं, वे उसके अपराधों का वर्णन करने लगे। ‘महाराज! जब उसके द्वारा ऐसा कर्म किया जा सकता है, तब वह और क्‍या नहीं कर सकता ? स्‍वामी ने पहले उसके बारे में जैसा सुन रखा है, वह वैसा नहीं है। ‘वह बातों से ही धर्मात्‍मा बना हुआ है। स्‍वभाव से तो बड़ा क्रुर है। भीतर से यह बड़ा पापी है। परंतु ऊपर से धर्मात्‍मापन का ढोंग बनाये हुए हैं। उसका सारा आचार-विचार व्‍यर्थ दिखावे के लिये है। ‘उसने तो अपना काम बनाने और पेट भरने के लिये ही व्रत करने में परिश्रम किया है। यदि आपको विश्‍वास न हो तो यह लीजिये, हम अभी उसके यहाँ से मांस ले आकर दिखाते हैं। ऐसा कहकर वे क्षणभर में ही सियार के घर से उस मांस को उठा लाये। मांस के अपहरण ही बात जानकर और उन सेवकों की बातें सुनकर शेर ने उस समय यह आज्ञा दे दी कि सियार को मृत्‍युदण्‍ड दे दिया जाय।[4]-

शेर की माता का शेर को समझाना

शेर की यह बात सुनकर उसकी माता हितकर वचनों द्वारा उसे समझाने के लिये वहाँ आयी और बोली- ‘बेटा! इसमें कुछ कपटपूर्ण षड्यन्‍त्र हुआ मालूम पड़ता है; अत: तुम्‍हें इस पर विश्‍वास नहीं करना चाहिये। ‘काम में लांग-डांट हो जाने से जिनके मन में शुद्धभाव नहीं हैं, वे लोग निर्दोष पर ही दोषारोपण करते हैं। किसी को अपने से उंची अवस्‍था में देख कर कोई-कोई ईर्ष्‍यावश सहन नहीं कर पाते। यही वैरभाव उत्‍पन्‍न करने वाली प्रक्रिया हैं। ‘कोई कितना ही शुद्ध और उद्योगी क्‍यों न हो, लोग उस पर दोषारोपण कर ही देते हैं। अपने धार्मिक कर्मों में लगे हुए वनवासी मुनि के भी शत्रु, मित्र और उदासीन- ये तीन पक्ष पैदा हो जाते हैं।[4] ‘लोभी लोग निर्लोभी से, कायर बलवानों से, मुर्ख विद्वानों से, दरिद्र बड़े-बड़े धनियों से, पापाचारी धर्मात्‍माओं से और कुरूप सुन्‍दर रुपवालों से द्वेष करते हैं। ‘विद्वानों में भी बहुत-से ऐसे अविवेकी, लोभी और कपटी होते हैं, जो बृहस्‍पति के समान बुद्धि रखने वाले निर्दोष व्‍यक्तियों में दोष ढूँढ निकालते हैं। ‘एक ओर तो तुम्‍हारे सुने घर से मांस की चोरी हुई हैं दूसरी ओर एक व्‍यक्ति ऐसा हैं, जो देने पर भी मांस लेना नहीं चाहता- इन दोनों बातों पर पहले अच्‍छी तरह विचार करो। ‘संसार में बहुत से असभ्‍य प्राणी सभ्‍य की तरह और सभ्‍य लोग असभ्‍य के समान देखे जाते हैं, इस तरह अनेक प्रकार के दृष्टिगोचर होते हैं;[5]- अत: उनकी परीक्षा कर लेनी उचित है। ‘आकाश ऑंधी की हुई कड़ाही के तले (भीतरी भागों) के समान दिखायी देता है और जूगनू अग्नि के सदृश दृष्टिगोचर होता है, परंतु न तो आकाश में तल है और न जुगनू में अग्नि ही है। ‘इसलिये प्रत्‍यक्ष दिखायी देने वाली वस्‍तु की भी परीक्षा करनी उचित है। जो परीक्षा लेकर भले-बुरे की जांच करके किसी कार्य के लिये आज्ञा देता हैं, उसे पीछे पछताना नहीं पड़ता। ‘बेटा! यदि शक्तिशाली राजा दूसरे की मरवा डाले तो यह उसके लिये कोई कठिन काम नहीं हैं, परंतु शक्तिशाली पुरुषों में यदि क्षमा का भाव हो तो संसार में उसी की बढ़ाई की जाती हैं और उसी से राजाओं का यश बढ़ता है। ‘बेटा! तुमने ही इस सियार को मन्‍त्री के पद पर बिठाया है, और तुम्‍हारे सामन्‍तों में भी इसकी ख्‍याती बढ़ गयी हैं। कोई सुपात्र व्‍यक्ति बड़ी कठिनाई से प्राप्‍त होता है। यह सियार तुम्‍हारा हितैषी सुहद हैं; इसलिये तुम इसकी रक्षा करो। ‘जो दूसरों के मिथ्‍या कलंक लगाने पर किसी निर्दोष को भी दण्‍ड देता हैं, वह दुष्‍ट मन्त्रियों वाला राजा शीघ्र ही नष्‍ट हो जाता हैं।[5]

गुप्तचर द्वारा शेर को सही कथन बताना

तदनन्‍तर उन्‍हीं शत्रुओं के समूह में से किसी धर्मात्‍मा सियार ने (जो शेर का गुप्‍तचर बना था) आकर गीदड़ के साथ जो यह छल-कपट किया गया था, वह सब सिंह को कह सुनाया।[5]

शेर द्वारा सियार का सत्कार करना

इस से शेर की सियार की सच्‍चरित्रता का पता चल गया और उसने उसका सत्‍कार करके उसे इस अभियोग से मुक्‍त कर दिया। इतना ही नहीं, मृगराज ने स्‍नेहपूर्वक बांरबार अपने सचिव को गले से लगाया। तत्‍पश्‍चात नीतिशास्‍त्र के ज्ञाता सियार ने मृगराज की आज्ञा लेकर अमर्ष से संतप्‍त हो उपवास करके प्राण त्‍याग देने विचार किया। शेर ने धर्मात्‍मा गीदड़ का भली-भाँति आदर-सत्‍कार करके उसे उपवास से रोक दिया। उस समय उसके नेत्र स्‍नेह से खिल उठे थे।[5]

सियार का अपने मंत्री पद से अपमानित होने पर पद त्यागने की विनती करना

सियार ने देखा, मालिक का हृदय स्‍नेह से आकुल हो रहा हैं, तब उसने उसे प्रणाम करके अश्रुगद्रद वाणी से इस प्रकार कहना आरम्‍भ किया। ‘महाराज! पहले तो आपने मुझे सम्‍मान दिया और पीछे अपमानित कर दिया, शत्रुओं की सी अवस्‍था में डाल दिया, अत: अब मैं आपके पास रहने के योग्‍य नहीं हूँ।[5] ‘जो अपने पद से गिरा दिये जाने के कारण असंतुष्‍ट हों, अपमानित किये गये हों, जो स्‍वयं राजा से पुरस्‍कृत होकर दूसरों के द्वारा कलंक लगाये जाने के कारण उस आदर से वंचित कर दिये गये हों, जो क्षीण, लोभी, क्रोधी, भयभीत और धोखें में डाले गये हों, जो महत्‍वपूर्ण पद पाना चाहते हों, जिन्‍हें सताया गया हो, जो किसी राजा पर आने वाले संकट समूह की प्रतिक्षा कर रहे हों, छिपे रहते हों और मन में कपटभाव रखते हों, वे सभी सेवक शत्रुओं का काम बनाने वाले होते हैं। जब मैं अपने पद से भ्रष्‍ट और अपमानित हो गया, तब पुन: आप मुझ पर कैसे विश्‍वास कर सकेंगे ?[6] अथवा मैं ही कैसे आपके पास रह सकूँगा ? ‘आपने योग्‍य समझकर मुझे अपनाया और मन्‍त्री के पद पर बिठाकर मेरी प्रतीक्षा ली। इसके बाद अपनी की हुई प्रतिज्ञा को तोड़कर मेरा अपमान किया। ‘पहले भरी सभा में शीलवान कहकर जिसका परिचय दिया गया हो, प्रतिज्ञा की रक्षा करने वाले पुरुष को उसका दोष नहीं बताना चाहिये। ‘जब मैं इस प्रकार यहाँ अपमानित हो गया तो अब आप पर मेरा विश्‍वास न होगा और आप भी मुझ पर विश्‍वास नहीं कर सकेंगे। ऐसी दशा में आपसे मुझे सदा भय बना रहेगा। ‘आप मुझ पर संदेह करेंगे और मैं आपसे डरता रहूंगा, इधर पराये दोष ढूंढने वाले तनिक भी स्‍नेह नहीं है तथा इन्‍हें संतुष्‍ट रखना भी मेरे लिये अत्‍यन्‍त कठिन है। साथ ही यह मन्‍त्री का कर्म भी अनेक प्रकार के छल-कपट से भरा हुआ है। ‘प्रेम का बन्‍धन बड़ी कठिनाई से टूटता है, पर जब वह एक बार टूट जाता है, तब बड़ी कठिनाई से जुट पाता है। जो प्रेम बारंबार टूटता और जुड़ता रहता है, उसमें स्‍नेह नहीं होता। ‘ऐसा मनुष्‍य कोई एक ही होता है, जो अपने या दूसरे के हित में रत न रहकर स्‍वामी के ही हित में संलग्‍न दिखायी देता हो; क्‍योंकि अपने कार्य की अपेक्षा रखकर स्‍वार्थ साधन उदेश्‍य लेकर प्रेम करने वाले तो बहुत होते हैं, परंतु शुद्धभाव से स्‍नेह रखने वाले मनुष्‍य अत्‍यन्‍त दुर्लभ हैं। ‘योग्‍य मनुष्‍य को पहचानना राजाओं के लिये अत्‍यन्‍त दुष्‍कर है; क्‍योंकि उनका चित चंचल होता है, सैकड़ों में से कोई एक ऐसा मिलता है, जो सब प्रकार से सुयोग्‍य होता हुआ भी संदेह से परे हो। ‘मनुष्‍य के उत्‍कर्ष और अपकर्ष (उन्‍नति और अवनति) अकस्‍मात होते हैं, किसी का भला करके बुरा करना और उसे महत्‍व देकर नीचे गिराना, यह सब ओछी बुद्धि का परिणाम है’। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम और युक्तियों से युक्‍त सान्‍त्‍वनापूर्ण वचन कहकर सियार ने बाघ राजा को प्रसन्‍न कर लिया और उसकी अनुम‍ती लेकर वह वन में चला गया। वह बड़ा बुद्धिमान था; अत: शेर की अनुनय-विनय न मानकर मृत्‍युपर्यन्‍त निराहार रहने का व्रत ले एक स्‍थान पर बैठ गया और अन्‍त में शरीर त्‍यागकर स्‍वर्गधाम में जा पहुँचा।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 111 श्लोक 1-13
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 111 श्लोक 14-29
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 111 श्लोक 30-44
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 111 श्लोक 45-60
  5. 5.0 5.1 5.2 5.3 5.4 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 111 श्लोक 61-76
  6. 6.0 6.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 111 श्लोक 77-90

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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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