महाभारत शान्ति पर्व के ‘आपद्वर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 160 के अनुसार मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
भीष्म का युधिष्ठिर को इंद्रियों को संयम में रखने का ज्ञान देना
युधिष्ठिर ने पूछा- धर्मात्मा पितामह! जो स्वाध्याय के लिये यत्नशील है और धर्म पालन की इच्छा रखता है, उस मनुष्य के लिये इस संसार में श्रेय क्या बताया जाता है? पितामह! जगत में श्रेय का प्रतिपादन करने वाले अनेक प्रकार दर्शन (मत) है; परंतु आप जिसे श्रेय मानते हों, जो इस लोक और परलोक में भी कल्याण करने वाला हो, उसे मुझे बताइये। भारत! धर्म का यह मार्ग बहुत बड़ा है। इससे बहुत सी शाखाएं निकली हुई हैं। इन धर्मों में से कौन सा धर्म सर्वोत्तम, अवश्य पालन करने योग्य माना गया है? राजन! बहुत–सी शाखाओं से युक्त इस महान धर्म का वास्तव में परम मूल क्या है? तात! ये सब बातें मुझे पूर्ण रूप से बताइये। भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर! मैं बड़े हर्ष के साथ तुम्हें वह उपाय बताता हूं, जिससे तुम कल्याण प्राप्त कर लोगे। जैसे अमृत को पीकर पुर्ण तृप्ति हो जाती है, उसी प्रकार तुम ज्ञानी होकर इस ज्ञान-सुधा से पूर्णत: तृप्त हो जाओगे। महर्षियों ने अपने–अपने ज्ञान के अनुसार धर्म की एक नहीं, अनेक विधियां बतायी हैं, परंतु उन सबका आधार दम (मन और इन्द्रियों का संयम) ही है। धर्म के सिद्धान्त को जानने वाले वृद्ध पुरुष दम को नि:श्रेयस (परम कल्याण) का साधन बताते हैं। विशेषत: ब्राह्मण के लिये तो दम ही सनातन धर्म है। दम से ही उसे अपने शुभ कर्मों की यथावत् सिद्धि प्राप्त होती है। दम उसके लिये दान, यज्ञ और स्वाध्याय से बढ़कर है। दम तेज की वृद्धि करता है, दम परम पवित्र साधन है, दम से पापरहित हुआ तेजस्वी पुरुष परमपद को प्राप्त कर लेता है। हमने संसार में दम के समान दूसरा कोई धर्म नहीं सुना। जगत् में सभी धर्मवालों के यहाँ दम को उत्कृष्ट बताया गया है। सबने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।[1]
इंद्रियों के संयम से लाभ
नरेन्द्र! दम से अर्थात् इन्द्रिय और मन के संयम से युक्त पुरुष को महान् धर्म की प्राप्ति होती है। वह इहलोक और परलोक में भी परम सुख पाता है। जिसने अपनेमन और इन्द्रियों का दमन कर लिया है, वह सुख से सोत, सुख से ही जागता और सुखपूर्वक ही लोकों में विचरता है। उसका मन सदा प्रसन्न रहता है। जिसकी इन्द्रियां और मन वश में नहीं है, वह पुरुष निरंतर क्लेश उठाता है। साथ ही वह अपने ही दोषों से बहुत–से दूसरे–दूसरे अनर्थेां की भी सृष्टि कर लेता है। चारों आश्रमों में दम को ही उत्तम व्रत बताया गया है। अब मैं इन्द्रिय–दमन एवं मनोनिग्रह के उन लक्षणों को बताऊंगा, जिनका उदय होना ही दम कहा गया है। क्षमा, धीरता, अहिंसा, समता, सत्यवादिता, सरलता, इन्द्रिय–विजय, दक्षता, कोमलता, लज्जा, स्थिरता, उदारता, क्रोधहीनता, संतोष, प्रिय वचन बोलने का स्वभाव, किसी भी प्राणी को कष्ट न देना और दूसरों के दोष न देखना-इन सद्गुणों का उदय होना ही दम कहलाता है। कु्रूनन्दन! जिसने मन और इन्द्रियों का दमन कर लिया है, उसमें गुरुजनों के प्रति आदर का भाव, समस्त प्राणियों के प्रति दया और किसी की भी चुगली न करने की पवृति होती है। वह जनापवाद, असत्य भाषण, निंदा–स्तुति की प्रवृति, काम, क्रोध, लोभ, दर्प, जडता, डींग, हांकना, रोष, ईर्ष्या और दूसरों का अपमान–इन दुर्गुणों का कभी सेवन नहीं करता।[1] इन्द्रिय और मन को वश में रखने वाले पुरुष की कभी निंदा नहीं होती। उसके मन में कोई कामना नहीं होती। वह छोटी–छोटी वस्तुओं के लिये किसी के सामने हाथ नहीं फैलाता अथवा तुच्छ विषय–सुखों की अभिलाषा नहीं रखता, दूसरों के दोष नहीं देखता। वह मनुष्य समुन्द्र के समान अगाध गाम्भीर्य धारण करता है। जैसे समुन्द्र अनन्त जलराशि पाकर भी भरता नहीं है,उसी प्रकार वह भी निरंतर धर्मसंचय से कभी तृप्त नहीं हेता। ‘मैं तुम पर स्नेह रखता हूँ और तुम मुझ पर। वे मुझमें अनुराग रखते हैं और मैं उनमें’ इस प्रकार पहले के सम्बन्धियों के सम्बन्ध का जितेन्द्रिय पुरुष चिन्तन नहीं करता।[2]-
प्रसन्न मन होने के लाभ
जगत में ग्रामीणों और वनवासियों की जो–जो प्रवृतियां होती हैं, उन सबका जो सेवन नहीं करता तथा दूसरों की निंदा और प्रशंसा से भी दूर रहता है, उसकी मुक्ति हो जाती है। जो सबके प्रति मित्रता का भाव रखने वाला और सुशील है, जिसका मन प्रसन्न है, जो नाना प्रकार की आसक्तियों से मुक्त तथा आत्मज्ञानी है, उसे मृत्यु के पश्चात मोक्षरूप महान् फल की प्राप्ति होती है। जो सदाचारी, शीलसम्पन्न, प्रसन्नचित और आत्मतत्त्व को जानने वाला है, वह विद्वान पुरुष इस लोक में सत्कार पाकर परलोक में परम गति पाता है। इस जगत् में जो केवल शुभ ( कल्याणकारी ) कर्म है तथा सतपुरुषों ने जिसका आचरण किया है, वही ज्ञानवान् मुनि का मार्ग है। वह स्वभावत: उसका आचरण करता है। उससे कभी च्युत नहीं होता। ज्ञान सम्पन्न जितेन्द्रिय पुरुष घर से निकलकर वन का आश्रय ले वहाँ मृत्यु काल की प्रतीक्षा करता हुआ निर्द्वन्द्व विचरता रहता है। इस प्रकार वह ब्रह्मभाव को प्राप्त होने में समर्थ हो जाता है। जिसको दूसरे प्राणियों से भय नहीं है तथा जिससे दूसरे प्राणी भी भय नहीं मानते, उस देहाभिमान से रहित महात्मा पुरुष को कहीं से भी भय नहीं प्राप्त होता। वह उपभोग द्वारा प्रारब्ध–कर्मों को क्षीण करता है और कर्तृत्वाभिमान तथा फलासक्ति से शून्य होने के कारण नूतन कर्मों का संचय नहीं करता है।[2]
स्नेहपूर्ण व्यवहार से लाभ
सभी प्राणियों में समानभाव रखकर सबको मित्र की भाँति अभयदान देता हुआ विचरता है। जैसे आकाश में पक्षियों का और जल में जलचर जन्तुओं का पदचिन्ह नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार ज्ञानी की गति भी जानने में नहीं आती है। इसमें तनिक भी संशय नहीं है। राजन्! जो घर–बार को छोड़कर मोक्षमार्ग का ही आश्रय लेता है, उसे अनन्त वर्षों के लिये दिव्य तेजोमय लेाक प्राप्त होते हैं। जिसका आचार–विचार शुद्ध ओर अन्त:करण निर्मल है, जिसकी कामनाएं शुद्ध हैं तथा जो भोगों से पराङमुख हो चुका है, वह आत्मज्ञानी पुरुष सम्पूर्ण कर्मों का, तपस्या का तथा नाना प्रकार की विघाओं का विधिवत् संन्यास (त्याग) करके सर्वत्यागी संन्यासी होकर इहलोक में सम्मानित हो परलोक में अक्षय स्वर्ग (ब्रह्मधाम) को प्राप्त होता है। ब्रह्मराशि से उत्पन्न हुआ जो पितामह ब्रह्माजी का उत्तम धाम है, वह हृदयगुहा में छिपा हुआ है। उसकी प्राप्ति सदा दम (इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह ) से ही होती है।[2]
दम का माहात्म्य=
जिसका किसी भी प्राणी के साथ विरोध नहीं है, जो ज्ञानस्वरूप आत्मा में रमता रहता है, ऐसे ज्ञानी को इस लोक में पुन: जन्म लेने का भय ही नहीं रहता, फिर उसे परलोक का भय कैसे हो सकता है? दम अर्थात् संयम में एक ही देाष है, दूसरा नहीं। वह यह कि क्षमाशील होने के कारण उसे लोग असमर्थ समझने लगते है। महाप्राज्ञ युधिष्ठिर! उसका यह एक दोष ही महान गुण हो सकता है। क्षमा धारण करने से उसको बहुत से पुण्यलोक सुलभ होते हैं। साथ ही क्षमा से सहिष्णुता भी आ जाती है। भारत! संयमी पुरुष को वन में जाने की क्या आवश्यकता है? और जो असंयमी है, उसको वन में रहने से भी क्या लाभ है? संयमी पुरुष जहाँ रहे, वहीं उसके लिये वन और आश्रम है। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्मजी की यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए, मानो अमृत पीकर तृप्त हो गये हों। कुरुक्षेष्ठ! तत्पश्चात् उन्होंने धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भीष्मजी से पुन: तपस्या विषय में प्रश्न किया। तब भीष्म जी ने उन्हें उसके विषय में सब कुछ बताना आरम्भ किया।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 160 श्लोक 1-18
- ↑ 2.0 2.1 2.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 160 श्लोक 19-32
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 160 श्लोक 33-38
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शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
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