- महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 302 के अनुसार वसिष्ठ और करालजनक के संवाद का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
वसिष्ठ और करालजनक का संवाद
युधिष्ठिर ने पूछा– पितामह! वह अक्षर तत्व क्या है, जिसे प्राप्त कर लेने पर जीव फिर इस संसार में नहीं लौटता तथा वह क्षर पदार्थ क्या है, जिसको जानने या पा लेने पर भी पुन: इस संसार में लौटना पड़ता है? शत्रुसूदन! महाबाहु! कुरुनन्दन! क्षर और अक्षर के स्वरूप को स्पष्टरूप से समझने के लिये ही मैंने आपसे यह प्रश्न किया है। वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण, महाभाग महर्षि तथा महात्मा यति भी आपको ज्ञाननिधि कहते हैं। अब सूर्य के दक्षिणायन में रहने के थोड़े ही दिन शेष हैं। भगवान सूर्य के उत्तरायण में पदार्पण करते ही आप परमधाम को पधारेंगे। आपके चले जाने पर हमलोग अपने कल्याण की बातें किससे सुनेंगे? आप कुरुवंश को प्रकाशित करने वाले प्रदीप हैं और ज्ञानदीप से उद्भासित हो रहे हैं। अत: कुरुकुलधुरन्धर! राजेन्द्र! मैं आप ही के मुँह से यह सब सुनना चाहता हूँ। आपके इन अमृतमय वचनों को सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती है (अतएव आप मुझे यह क्षर-अक्षर का विषय बताइये।)
वसिष्ठ द्वारा क्षर तथा अक्षरत्तत्त्व का निरूपण
भीष्म जी ने कहा– युधिष्ठिर! इस विषय में कराल नामक जनक और वसिष्ठ का जो संवाद हुआ था, वही प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें बतलाऊँगा। एक समय की बात है, ऋषियों में सूर्य के समान तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ अपने आश्रम पर विराजमान थे। वहाँ राजा जनक ने पहुँचकर उनसे परम कल्याणकारी ज्ञान के विषय में पूछा। मित्रावरुण के पुत्र वसिष्ठ जी अध्यात्मविषयक प्रवचन में अत्यन्त कुशल थे और उन्हें अध्यात्मज्ञान का निश्चय हो गया था। वे एक आसन पर विराजमान थे। पूर्वकाल में कराल नामक राजा जनक ने उन मुनिवर के पास जा हाथ जोड़कर प्रणाम किया और सुन्दर अक्षरों से युक्त विनयपूर्ण तथा कुतर्करहित मधुर वाणी में इस प्रकार पूछा- ‘भगवन! जहाँ से मनीषी पुरुष पुन: इस संसार में लौटकर नहीं आते हैं, उस सनातन परब्रह्म के स्वरूप का मैं वर्णन सुनना चाहता हूँ। ‘तथा जिसे क्षर कहा गया है, उसे भी जानना चाहता हूँ। जिसमें इस जगत का क्षरण (लय) होता है और जिसे अक्षर कहा गया है, उस निर्विकार कल्याण्मय शिवस्वरूप अधिष्ठान का भी ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ।
वसिष्ठ जी ने कहा– भूपाल! जिस प्रकार इस जगत का क्षय (परिवर्तन) होता है, उसको तथा जो किसी भी काल में क्षरित (नष्ट) नहीं होता, उस अक्षर को भी बता रहा हूँ, सुनो। देवताओं के बारह हजार वर्षों का एक चतुर्युग होता है। इसी को कल्प अर्थात महायुग समझो। ऐसे एक हजार महायुगों का ब्रह्मा जी का एक दिन बताया जाता है। राजन! उनकी रात्रि भी उतनी ही बड़ी होती है; जिसके अन्त में वे जागते हैं। अनन्तकर्मा ब्रह्मा जी सबके अग्रज और महान भूत हैं। जो अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि सिद्धियों पर शासन करने वाले हैं, वे कल्याणस्वरूप निराकार परमेश्वर ही उन मूर्तिमान ब्रह्मा की सृष्टि करते हैं। परमात्मा ज्योति:- स्वरूप स्वयं प्रकट और अविनाशी हैं। उनके हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक और मुख सब और हैं। कान भी सब ओर हैं। वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं।[1]
परमेश्वर से उत्पन्न जो सबके अग्रज भगवान हिरण्यगर्भ हैं, ये ही बुद्धि कहे गये हैं। योगशास्त्र में ये ही महान कहे गये हैं। इन्हीं को विरिञ्चि तथा अज भी कहते है। अनेक नाम और रूपों से युक्त इन हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का सांख्यशास्त्र में भी वर्णन आता है। ये विचित्र रूपधारी, विश्वात्मा और एकाक्षर कहे गये हैं। इस अनेक रूपों वाली त्रिलोकी की रचना उन्होंने ही की है और स्वयं ही इसे व्याप्त कर रखा है। इस प्रकार बहुत-से रूप धारण करने के कारण वे विश्वरूप माने गये हैं। वे महातेजस्वी भगवान हिरण्यगर्भ विकार को प्राप्त हो स्वयं ही अहंकार की और उसके अभिमानी प्रजापति विराट की सृष्टि करते हैं। इनमें निराकार से साकार रूप में प्रकट होने वाली मूल प्रकृति को तो विद्यासर्ग कहते हैं और महतत्व एवं अहंकार को अविद्यासर्ग कहते हैं। अविधि (ज्ञान) और विधि (कर्म) की उत्पत्ति भी उस परमात्मा से ही हुई है। श्रुति तथा शास्त्र के अर्थ का विचार करने वाले विद्वानों ने उन्हें विधा और अविधा बतलाया है। पृथ्वीनाथ! अहंकार से जो सूक्ष्म भूतों की सृष्टि होती है उसे तीसरा सर्ग समझों। सात्त्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार के अहंकारों से जो चौथी सृष्टि उत्पन्न होती है, उसे वैकृत-सर्ग समझो। आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी– ये पांच महाभूत तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध– ये पांच विषय वैकृत-सर्ग के अन्तर्गत हैं। इन दसों की उत्पति एक ही साथ होती है, इसमें संशय नही है। राजेन्द्र! पांचवां भौतिक सर्ग समझो। जो प्राणियों के लिये प्रयोजनीय होने के कारण सार्थक है।
इस भौतिक सर्ग के अन्तर्गत आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा- ये पांच कर्मेन्द्रियां हैं। पृथ्वीनाथ! मनसहित इन सबकी उत्पति भी एक ही साथ होती है। ये चौबीस तत्त्व सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों में मौजूद रहते हैं। तत्वदर्शी ब्राह्मण इनके यथार्थ स्वरूप को जानकर कभी शोक नहीं करते हैं। नरश्रेष्ठ! तीनों लोकों में जितने देहधारी हैं, उन सब में इन्हीं तत्वों के समुदाय को देह समझना चाहिये। देवता, मनुष्य, दानव, यक्ष, भूत, गन्धर्व किन्नर, महासर्प, चारण, पिशाच, देवर्षि, निशाचर, दंश (डंक मारने वाली मक्खी), कीट, मच्छर, दुर्गन्धित कीड़े, चूहें, कुत्ते, चाण्डाल, हिरन, श्वपाक (कुत्ते का मांस खाने वाला), पुल्कस (म्लेच्छ), हाथी, घोड़े, गधे, सिंह, वृक्ष और गौ आदि के रूप में जो कुछ मूर्तिमान पदार्थ हैं, सर्वत्र इन्हीं तत्वों का दर्शन होता है। पृथ्वी, जल और आकाश में ही देहधारियों का निवास है, और कहीं नहीं; यह विद्वानों का निश्चय है। ऐसा मैंने सुन रखा है। हे तात! यह सम्पूर्ण पांच भौतिक जगत व्यक्त कहलाता है और प्रतिदिन इसका क्षरण होता है, इसलिये इसको क्षर कहते हैं। इससे भिन्न जो तत्व है, उसे अक्षर कहा गया है। इस प्रकार उस अव्यक्त अक्षर से उत्पन्न हुआ यह व्यक्त संज्ञक मोहात्मक जगत क्षरित होने के कारण क्षर नाम धारण करता है। क्षर-तत्वों में सबसे पहले महतत्व की ही सृष्टि हुई है। यह बात सदा ध्यान में रखने योग्य है। यही क्षर का परिचय है। महाराज! तुमने जो मुझसे पूछा था, उसके अनुसार यह मैंने तुम्हारे समक्ष क्षर-अक्षर के विषय का वर्णन किया है।[2]
तत्त्वों का वर्णन
इन चौबीस तत्त्वों से परे जो भगवान विष्णु (सर्वव्यापी परमात्मा ) हैं, उन्हें पचीसवाँ तत्व कहा गया है। तत्वों को आश्रय देने के कारण ही मनीषी पुरुष उन्हें तत्व कहते हैं। महतत्व आदि व्यक्त पदार्थ जिन मरणशील (नश्वर) पदार्थों की सृष्टि करते हैं, वे किसी-न-किसी आकार या मूर्ति का आश्रय लेकर स्थित होते हैं। गणना करने पर चौबीसवाँ तत्व है अव्यक्त प्रकृति और पचीसवाँ है निराकार परमात्मा। जो अद्वितीय, चेतन, नित्य, सर्वस्वरूप, निराकार एवं सबके आत्मा हैं, वे परम पुरुष परमात्मा ही समस्त शरीरों के हृदयदेश में निवास करते हैं। यद्यपि सृष्टि और प्रलय प्रकृति के ही धर्म हैं। पुरुष तो उनसे सर्वथा सम्बन्धरहित है तथापि उस प्रकृति के संसर्गवश पुरुष भी उस सृष्टि और प्रलयरूप धर्म से सम्बद्ध-सा जान पड़ता है। इन्द्रियों का विषय न होने पर भी इन्द्रियगोचर-सा हो जाता है तथा निर्गुण होने पर भी गुणवान-सा जान पड़ता है। इस प्रकार सृष्टि और प्रलय के तत्व को जानने वाला यह महान आत्मा अविकारी होकर भी प्रकृति के संसर्ग से युक्त हो विकारवान-सा हो जाता है एवं प्राकृत-बुद्धि से रहित होने पर भी शरीर में आत्माभिमान कर लेता है। प्रकृति के संसर्गवश ही वह सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से युक्त हो जाता है तथा अज्ञानी मनुष्यों का संग करने से उन्हीं की भाँति अपने को शरीरस्थ समझने के कारण वह उन-उन सात्त्विक, राजस, तामस योनियों में जन्म ग्रहण करता है।
प्रकृति के सहवास से अपने स्वरूप का बोध लुप्त हो जाने के कारण पुरुष यह समझने लगता है कि मैं शरीर से भिन्न नहीं हूँ। ‘मैं यह हूँ, वह हूँ, अमुक का पुत्र हूँ, अमुक जातिका हूँ’, इस प्रकार कहता हुआ वह सात्त्विक आदि गुणों का ही अनुसरण करता है। वह तमोगण से मोह आदि नाना प्रकार के तामस भावों को, रजोगुण से प्रकृति आदि राजस भावों को तथा सत्वगणु का आश्रय लेकर प्रकाश आदि सात्त्विक भावों को प्राप्त होता है। सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से क्रमश: शुक्ल, रक्त और कृष्ण– ये तीन वर्ण प्रकट होते हैं। प्रकृति से जो-जो रूप प्रकट हुए हैं, वे सब इन्हीं तीनों वर्णों के अन्तर्गत हैं। तमोगुणी प्राणी नरक में पड़ते हैं, राजस स्वभाव के जीव मनुष्य लोक मे जाते हैं तथा सुख के भागी सात्त्विक पुरुष देवलोक को प्रस्थान करते हैं। अत्यन्त केवल पापकर्मों के फलस्वरूप जीव पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनि को प्राप्त होता है। पुण्य और पाप दोनों के सम्मिश्रण से मनुष्यलोक मिलता है तथा केवल पुण्य से प्राणी देवयोनि को प्राप्त होता है। इस प्रकार ज्ञानी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए पदार्थों को क्षर कहते हैं। उपर्युक्त चौबीस तत्वों से भिन्न जो पचीसवाँ तत्व–परमपुरुष परमात्मा बताया गया है, वही अक्षर है। उसकी प्राप्ति ज्ञान से ही होती है।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 302 श्लोक 1-17
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 302 श्लोक 18-37
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 302 श्लोक 38-49
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आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना
- मोक्षधर्म पर्व
शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
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